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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


इस मकान में भला वह कहीं अल्पना बनाएगी? चारों तरफ तो अल्पना ही अल्पना है। सबसे सुन्दर डिजाइन की मोजाइक पसन्द करके उसने सारे मकान में डलवाया है।

'क्षतिपूर्ति' की राशि से अगर यह सारा कुछ नहीं होता तो कोई बात नहीं। डी. के. सेन जिस कम्पनी में था, वहाँ से भी जो कुछ मिलना है उसके उत्तराधिकारी भी तो सेन दम्पती ही हैं।

अल्पना समाप्त कर मन्दिर-कक्ष में आ बैठी शाश्वती-दो तरफ की बत्ती जलाकर। नया बिस्तर नये तकिये उस पर सुन्दर-सा बेड-कवर। सिरहाने के सहारे रखी हुई है वही दिव्य सेन की खूबसूरत सफेद फ्रेम में मढ़ी हुई तसवीर।

विदेश से वापस आने के बाद ही उसने यह तसवीर खिचवायी थी।

रोबदार चमकीला चेहरा। कसा और भरा-पूरा कद्दावर शरीर।

पलँग के पास सिर रखकर पागलों की तरह रो पड़ी थी शाश्वती। "...यह सब तू ऊपर से देख बेटे...तेरी पगली नासमझ माँ ने तेरे लिए क्या-क्या किया है। बेटे, सब तेरा है। हम सब तो इस मन्दिर के चाकर हैं...बस।"

रिक्शे की घण्टी सुनाई दे रही है।

तेज...और फिर उससे भी तेज।

आँखें पोंछकर, सभी दरवाजों पर ताला लागकर शाश्वती नीचे उतर आती है। बाहरी दरवाजे पर ताला लगाने जा रही थी कि तभी रिश्तेदारी में जेठ का छोटा नाती किसी दरवाजे से बाहर निकल आया और बोला, "सौ साल जिओगी दादी माँ, तुम्हारी एक चिट्ठी है। डाकिया यहीं डाल गया था।" और फिर अँधेरे में गायब हो गया।

लिफाफे पर अँग्रेजी में टाइप किया हुआ पता लिखा है।

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