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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


घर लौटकर पढ़ेगी, यह सोचकर शाश्वती चिट्ठी को बैग में रखने जा रही थी, तभी उसे सन्देह हुआ कि डन लोपों ने ईसे खोलकर पढ़ तो नहीं लिया? पत्र को निकालकर देख ही लिया।

नहीं। भलमनसाहत है कि खोला नहीं है।

लेकिन पता टाइप करके शाश्वती को कौन चिट्ठी भेजेगा? मोहर कहाँ की लगी है? कौन-सा देश है? कौन-सा शहर है?

एक अनजाने भय सै शाश्वती की छाती सिहर उठी। घर तक ले जाने का भी धैर्य उसमें नहीं रहा। दरवाजे के बल खड़ी होकर उसने लिफाफा फाड़ दिया।

लेकिन शाश्वती क्या इस तरह खड़ा रह सकी? सख्त लोहे के दरवाजे का

सहारा लेने के बाद भी? उसी दिन की तरह क्या वह रक्तहीन और भावशून्य होकर बैठ नहीं गयी? उस दिन, तेरह नवम्बर उन्नीस सौ अठहत्तर के दिन, जब आकाशवाणी से यह खबर प्रसारित हुई थी कि श्रीलंका जानेवाला विमान अचानक ध्वस्त होकर समुद्र में जा गिरा है?

पर किस तरह खड़ी रह सकती थी शाश्वती नाम की वह महिला,...अचानक यह देखकर कि समुद्र की अतल गहराई को दूर धकेलकर एक अपरिचित व्यक्ति इस पवित्र स्मृति-मन्दिर में आकर एक हलकी-सी चारपाई के सिरहाने रखे सफेद फ्रेम में मढ़ी तसवीर को हटाकर, उस जगह पर अपना कब्जा जमा लेना चाहता है।

वह कब्जा करके ही दम लेगा। क्योंकि वह लम्बा-चौड़ा कद्दावर-सा व्यक्ति जिसके कभी मजबूत चार हाथ-पैर थे, उनमें से तीन को खोकर, किसी तरह बायें हाथ से टेढ़े-तिरछे अक्षरों में लिखकर बता रहा है कि बहुत दिनों की नाकामयाब कोशिशों के बाद यह पत्र किसी तरह पोस्ट कर पा रहा है। दूसरी बार इस चेष्टा की भी कोई सम्भावना नहीं है शायद। इसलिए पत्र पाते ही उसका यहाँ से उद्धार करके ले जाने का तुरत इन्तजाम करो।

दरवाजे वाली बत्ती को आज सारी रात जलाकर रखना तय था। शाश्वती को इस बात की याद नहीं रही। उसने बत्ती बन्द कर दी। इसके साथ ही नीलाकाश के नीचे उभरा वह सुन्दर दृश्य भी समाप्त हो गया। शाश्वती के जीवन के केन्द्र-बिन्दु में एक लम्बे-चौड़े और चौकोर फ्रेम में जो एक ठहरी हुई तसवीर थी, वह एकाएक मिट गयी।

इसी अँधेरे में चिट्ठी को धीरे-से बैग में रखकर शाश्वती रिक्शे पर जा बैठी।

* * *

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