कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
यह क्या?
यह किसका मकान है?
पर
सचमुच का यह मकान है न कोई अलौकिक दृश्य। नीलाकाश के नीचे दमकती चाँदनी
में यह दृश्य जैसे अचानक ही फूट पड़ा है। यह कैसा चमत्कार है?
कई पुराने काई लगे,
टूटे-फूटे एक-मंजिले मकानों के बीच सिर उठाये खड़ा यह दोमंजिला भवन, सचमुच
ही बड़ा आश्चर्यजनक-सा लग रहा है।
निर्जन
रास्ते पर अकेली खड़ी शाश्वती को जैसे विश्वास नहीं हो रहा कि इतने दिनों
में धीरे-धीरे उसने एक ऐसा खूबसूरत तिलिस्म खुद ही खड़ा कर दिया है। इस
भवन को श्रीमती शाश्वती सेन ने ही रूप प्रदान किया है।
नहीं। हर रोज, हर पल
देखने के बाद भी शाश्वती यह नहीं समझ पायी थी कि उसके सपनों का भवन इतना
सुन्दर बन जाएगा।
यह
शाश्वती के जीवन भर के ध्यान, ज्ञान, स्वप्न का साकार रूप है। सामने के
कक्ष की छत मन्दिर के शिखर की तरह है। शायद इसी से यह अलौकिकता आ गयी है।
भगवान यह सब तुम्हारी ही अशेष कृपा है। शाश्वती भला कब सोच पायी थी कि यह
सब कभी सम्भव भी होगा।
''अन्दर नहीं जाओगी,
मौसी?''
लगता है बॉडीगार्ड को
मौसी की इस खोयी हुई अवस्था का पता चल गया है। समझ लिया है कि खटते-खटते
इनका शरीर बेदम हो गया है।
"हां, जाती हूँ।" शाश्वती
जैसे अपने में वापस लौट आती है।
ताला खोलकर वह अन्दर आ
गयी। द्वार के पास की उसने वत्ती जलायी। आज सारी रात इस बत्ती को जलने
देगी। बहुत सारा सामान है मकान में।
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