कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
मालव्य
कुछ दिन पहले ही रिटायर हुए हैं। काफी समय है उनके पास। पर वह किसी तरह भी
काम कराने के लिए नहीं आना चाहते। कह देते हैं, "यह सब तुम ही अच्छी तरह
समझ सकती हो। मुझे कुछ पता नहीं।"
"आलसी लोगों के पास दिमाग
होता ही नहीं कुछ जानने-समझने के लिए। पर एक बार के लिए तो जाओगे?''
शाश्वती टोकती।
"मुझे नहीं लगता त्हि
वहाँ जाकर तुम्हारे काम में बाधा देने के सिवा मैं और कुछ कर पाऊँगा।"
लेकिन
निरुपम जरूर आता है। सामान वगैरह लेने के लिए निरुपम ही साथ जाता है।
कमरों में मोजाइक डलवाने के दिन, स्नानघर में टाइलें फिटिंग करवाने के दिन
या छत पर लेण्टर डलवाने के दिन, निरुपम हमेशा हाजिर रहता है।
भवन का काम पूरी तरह
समाप्त हुए बिना शाश्वती गृह-प्रवेश के लिए तैयार नहीं
हुई थी। इसलिए भीड़ के घर में लम्बे समय तक रहना पड़ा है उसे। और मालव्य
सेन अपने साले के छोटे-से फ्लैट के तीन तल्ले वाले बरामदे में मानो खूँटा
गाड़कर बैठ गये हैं।
उत्सव
से एक दिन पहले शाम को शाश्वती इस नये मकान में इसलिए चली आयी ताकि फर्श
के ऊपर अल्पना वगैरह आज ही बनाकर रख छोड़ दे। आने के समय वह बोली थी,
''...तुम भी चलो न आज। शाम को क्या मैं अकेली जाऊँ?''
मालव्य ने अनमने ढंग से
कहा, ''अकेली क्यों? तुम्हारा रिक्शावाला तो बॉडीगार्ड ही है तुम्हारा।
लेकिन शाम के समय क्यों जा रही हो?''
''सोचती हूँ अभी ही
अल्पना तैयार कर आऊँ। सुबह हड़बड़ी में ठीक बन नहीं पाएगी और मोजाइक पर
जल्दी सूखेगी भी नहीं।''
''कोई ज्यादा देर लगेगी?''
''नहीं,
देर किस बात की? मैं क्या इतनी आलसी हूँ।'' कहकर बॉडीगार्ड के साथ ही चली
आयी थी शाश्वती। लेकिन पीतल की कटोरी हाथ में लिये रिक्शा से नीचे उतरते
ही स्तब्ध रह गयी थी वह।
उसे जैसे काठ मार गया।
सामने देखती रही।
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