कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
आँखें
बन्द कर वह मन की आंखों से देखती है 'दिव्य-स्मृति-मन्दिर' के गीतघर मैं
ब्रह्म संगीत का आयोजन चल रहा है। प्रकाश से चमचमाते कक्ष में धूप-बत्ती
की गन्ध फैल रही है। उसके पास ही दिव्य का कमरा है जिसके द्वार पर पीतल के
पटल पर लिखा है-दिव्य-स्मृति।
राजहंस
की तरह सफेद जयपुरी संगमरमर पर काले अक्षरों में लिखा हुआ एक मुख्य फलक
भवन के द्वार पर लगा होगा। इस भवन के बनने के पहले ही यह सब तैयार कर लिया
जाएगा।...दिव्य-स्मृति....अपने स्वप्नमय साधना-मन्दिर के लिए यही नाम चुन
रखा है शाश्वती ने।
साधना की सार्थकता है
साध्य के प्रकाश में। और वह साध्य के अतीत में ही अपने को व्यक्त कर रही
है।
दिन भर कारीगरों के साथ
घूमती रहती है शाश्वती। जैसे पल भर के लिए आँखों से ओझल होते ही उसका सारा
सपना धूल में मिल जाएगा।
मकान
जब तोड़ी जा रहा था तब शाश्वती ने निरुपम से कहा था, ''कुछ दिनों के लिए
अपने यहीं हमें आश्रय देना होगा, भैया! मैं तो अभी शरणार्थी हूँ!''....और
यह कहकर वह पहले की तरह हँस पड़ी थी। और ऐसा तो कई बार हो ही जाता है।
क्या हर समय यह याद रहता है कि हमारे लिए यह हँसने की घड़ी नहीं है, हँसना
हमारे लिए शरम की बात है!
निरुपम ने खुश होकर कहा
था, ''स्वागत है।''
अविवाहित
भैया के घर में आकर ठहरने में जितनी असुविधाएँ हैं, उतनी ही सुविधाएँ भी।
निरुपम के संसार में जूता गाँठने से लेकर चण्डी-पाठ करने तक का सारा काम
करनेवाला एक ही आदमी था-सत्यचरण! उसके ऊपर दो-दो आदमी का भी पूरा बोझ
डालकर शाश्वती जब चाहे बाहर जा सकती थी। सुबह-ही-सुबह सबसे पहले थोड़ा-बहुत
जो भी मिले उसे गले से उतार रिक्शा पर बैठकर वह अकेली ही कारीगरों से काम
कराने के लिए जा सकती है। भाभी जैसी अगर कोई औरत होती तो क्या यह मुमकिन
होता?
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