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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


अब इन सारी बेवकूफियों की नये सिरे से जाँच-पड़ताल हो रही है।

तीन-तीन पीढ़ियों का मकान। स्वभावतः एक-दूसरे से जुड़े हैं सब। सहन पर पन्द्रह इंच की दीवार डालकर बँटवारा हो गया है। दरवाजा डालने की जरूरत नहीं समझी किसी ने। किसी दुर्घटना की खबर सुनकर पड़ोसी बाहरी दरवाजे से होकर यहाँ अन्दर आते रहे हैं। और मुलाकात कर गये हैं। लेकिन वे दिलासा किसको देते, शाश्वती तो तब पत्थर की प्रतिमा बनी बैठी थी! मालव्य ने सौजन्य दिखाते हुए उन लोगों के प्रश्नों का उत्तर उदास स्वर में दिया था। सवाल...और सवाल जो कभी खत्म नहीं होते। ऐसे ही किसी की मौत कितने सारे सवाल पैदा कर देती है। अस्वस्थता से लेकर मृत्यु तक की स्थितियों का एक-एक खुलासा नाते-रिश्तेदार सुनना चाहते थे। और यह सब मरनेवाले के नजदीकी आदमी के सिवा भला और कौन बनाएगा? अन्त में क्या हुआ, इसका जवाब तो वही देगा, जो उस वक्त मृतक के पास मौजूद रहा होगा। फिर इस तरह की अभूतपूर्व मौत तो सवालों का पहाड़ खड़ा कर देती है। मालव्य ने भरसक सबको उत्तर दिया है...क्योंकि सवाल करनेवाले ज्यादातर लोग तो सेन परिवार के ही थे।

डर था तो अब एक ही। यह तीन परिवारों का सम्मिलित मकान है और उसकी दीवार जब तोड़ी जाएगी तो न जाने फिर कितने सवाल उठ खड़े होंगे। सवालों का सामना उन्हें ही करना होगा।

लेकिन हैरानी की बात है, उन लोगों को इसकी जरा भी चिन्ता नहीं। पता नहीं क्यों? हो सकता है इस घटना से वे लोग पत्थर हो गये हों। क्षतिपूर्ति की रकम की बात तो छिपी नहीं रही है।

हो सकता है शाश्वती यह सब समझती हो। फिर भी मन-ही-मन वह कहती है, 'बाद में तुम सब भी समझोगे। उस इमारत का बनना खत्म होते ही समझोगे तुम लोग कि किसके लिए इस टूटी जान और सारा जहान लेकर मैं कमर कसकर कारीगरों और मिस्त्रियों से काम करवा रही हूँ। उनके साथ दिन-दिन भर बक-झक करती रही हूँ...'

बीच-बीच में थकी-चुकी शाश्वती बैठ जाती है।

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