कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
तमाम असुविधाओं के बीच
सत्यचरण जो भी खाना बनाता है वह चाहे और कुछ भी हो, खाने के योग्य नहीं
होता।
पर इस समय इन सबसे कुछ
बनता-बिगड़ता नहीं।
अगर
भैया बारह महीनों यही सब खाकर जिन्दा रह सकता है तो क्या मालव्य कुछ दिन
नहीं रह सकते? शाश्वती के हाथ जैसा खाना भला और कितने लोग बना तकते हैं?
भाई के घर शरणार्थी होकर आने से पहले ही वह नयन की माँ को उसके गाँव भेज
चुकी थी।
नयन
की माँ को उसने भविष्य के ढेर सारे सुनहरे सपने दिखा रहे हैं ताकि वह अपने
गाँव में ही न रह जाए। ''इस सड़े-गले मकान में इतने वर्षों तक तुमने काम
किया है नयन की माँ, लेकिन लौटोगी तो देखना रसोईघर में कितनी सारी
सुविधाएँ होंगी।'' शाश्वती ने अपने-पराये लोगों के घरों की रसोई में जितनी
सुविधाएँ देखी हैं उन सबको वह अपने रसोईघर में सहेजने के लिए चेष्टारत है।
बीच-बीच मैं निरुपम को भी
हाथ बँटाना पड़ता है।
शाश्वती स्वभावतः गुस्सा
दिखाती हुई कुछ जोर से कहती है, ''तुम्हारे जीजा जी
से
अगर कुछ हो सकता। कहते रहे बाथरूम की दीवारों पर शीशे की टाइलें डलवाएँगे।
अब भला यह कहीं मिलेगा? अच्छा, तुम्हीं बताओ भैया, यह सब सुनकर जी नहीं
जलेगा? यह भार तुम्हीं को लेना होगा। तुम्हें याद है भैया, बचपन में छोटी
बुआ के ससुर के मकान के बाथरूम में शीशे की टाइलें देखकर हम लोग कितने
हैरान रह गये थे? उसके बाद कितनी ही चीजें देखीं हमने...लेकिन वह तो जैसे
मेरे मन में ही बैठ गयी है। दुतल्ले पर जो सोने का कमरा बनेगा उससे लगे
बाथरूम में यही टाइलें लगानी होंगी।
''ये
पुराने ढंग के लकड़ी के स्विचबोर्ड, भला नयें मकान में आज यह सब कोई डलवाता
भी है? आजकल तो सब कुछ पतला....स्तिक...शो...'' कहते-कहते वह रुक जाती है।
फिर गम्भीर लेकिन भर्राये स्वर में बोली, ''विदेश से लौटने के बाद इन सब
चीजों के बारे में लड़के ने कितनी-कितनी बातें की थीं। उसने कहा था- ''अब
देखना....तुम लोगों के लिए कैसा मकान वनवाता हूँ।'' अचानक रो ही पड़ी
वह,...''तो मैंने तो यही सोच रखा है कि मेरा बेटा ही यह मकान बनवा रहा
है।''
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