कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
इन
सारी बातों के बीच ही शाश्वती कभी-कभी पुराने दिनों की याद में खो जाती
है। वह चाहती है कि ऐसा कोई दिन आए जबकि इस अभागे मकान को नींव से उखाड़कर
फेंक दिया जाता और फिर नये सिरे से.. एक नये चित्र की तरह बना दिया
जाता।...
वह
शायद आदमी के बूते की ही बात है कि वह आत्मविस्मृत हो उठता है। अपने पहले
की स्थितियों को याद करते हुए वह आज की स्थिति को भूल जाती है। इसलिए वह
उसी मानसिकता में कहती है, ''बहुत दिनों से इस उम्मीद में हूँ कि कभी तो
मेरे भी दिन लौटेंगे...''
लेकिन मालव्य तो इसी कारण
आत्मविस्मृत होकर नहीं कह सकते कि ''समझ लो तुम्हारे दिन फिरे हैं।''
''नहीं, ऐसी बात भला कोई
कह सकता है?''
इसीलिए
जब शाश्वती मुग्धभाव से कह रही थी, ''मेरा नक्शा देख रहे हो, भैया? कोई
पक्का इंजीनियर भी इसमें खोट नहीं निकाल सकता। इसे मैंने कोई आज ही नहीं
बनाया, जीवन भर, हर दिन, तिल-तिल कर इसे बनाती रही हूँ...''
यह सब दो पुरुष शान्त
रहकर सुन रहे हैं।
शाश्वती
अपने हाथों से तैयार नक्शे को एकदम निर्दोष मानकर निश्चिन्त है। इसलिए अब
वह उठते-बैठते अपने इस इतने दिनों के आश्रयस्थल में यदि कोई दोष हो
तो...निकाला करती है।
आश्चर्य
है, इतने बड़े मकान को पीढ़ियों से एक रसोईघर बनाकर रख छोड़ा गया है-सिर्फ
पीढ़ा बिछाकर खाना खाने के लिए। यह बात किसी के दिमाग में नहीं आयी कि खाना
खाने के लिए एक घर अलग से ही बना लिया जाए। और सहन में बेडरूम जितना बड़ा
चहबच्चा। कोई तुक है इसका? दीवारों की चौड़ाई तीस इंच, भला इसका कोई मतलव
है? इतना बड़ा सहन पार कर स्नानघर में जाओ, भला यह बेवकूफी नहीं तो क्या है?
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