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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


इसीलिए शाश्वती के जिम्मे सारा काम सौंप दिया गया।

आशा के रंगीन डोर उसे पकड़ा दिये गये। ताकि उनसे बुनकर तैयार करे वह रंगीन फूलों का बूटा। इन धागों से बुनती रहे अपने सपने।

लेकिन सवाल यह था कि वह स्मृति-मन्दिर किस जगह स्थापित होगा?

क्यों? इस पुराने और टूटे-फूटे मकान को तोड़कर सात पुरखों के पुराने मकान पर। जमीन कुछ कम नहीं है, आसपास नाते-रिश्तेदार बस गये हैं। पूरा मकान ढहाना नहीं है, उसका कुछ हिस्सा ही तोड़ना होगा। आजकल के फ्लैटों की तुलना में यह जगह कम नहीं है।

निरुपम उसे रंगीन फूल चुनने देता है। तब भी मालव्य के असहाय चेहरे की और देखकर वह कहता है, ''इस मकान को तोड़ने की बात कर रही है शाश्वती? यह भी तो एक स्मृति-मन्दिर ही है। सुना है, वह मालव्य के दादा-परदादा का पुश्तैनी मकान है।''

शाश्वती ने गर्दन टेढ़ी कर कहा, ''परदादा का है या लकड़दादा का-कौन जानता है? शादी के बाद से तो मैं इसे इसी तरह देखती आ रही हूँ-पलस्तर टूटा, ईंटें उखड़ी, फर्श सीली और...''

मालव्य के चेहरे पर एक उदास हँसी फैल गयी। वह बोले, ''मुझमें तो कभी इतनी क्षमता हुई ही नहीं कि टूटी दीवारों की मरम्मत ही करा सकूँ। बस पुरखों का गुणगान ही करता जा रहा हूँ।''

शाश्वती कुछ विरक्त होकर बोली, ''क्षमता नहीं हुई तो इसमें सिर्फ क्षमता की ही बात नहीं, इच्छा का भी अभाव है। घर से तुम्हारा लगाव तो सिर्फ खाने-सोने तक ही है। सारी कठिनाइयाँ तो मुझे ही झेलनी पड़ती हैं।''...

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