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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


इसी खौलती हुई मानसिकता को रूपायित करनेवाली कहानी 'बेकसूर' में बलराम साहा का चरित्र अपने-आप में आश्चर्यजनक रूप से अप्रत्याशित हो उठता है जब उसे यह पता चलता है कि उसकी एकमात्र बेटी की उसके सनकी दामाद ने हत्या कर दी है। साहा अपनी स्वाभाविक विकृतियों के साथ समधियाने पहुँचता है और अनाप-शनाप... जो मन में आता है... बकता रहता है। ऐसा प्रतीत होता है कि बदले की भावना और कोर्ट-कचहरी के फैसले के बीच ही सारी कहानी दम तोड़ देगी। लेकिन नाटकीय संवाद, एकालाप, स्वाभाविकता की रक्षा और पात्रोचित भाषा और मानसिकता के बावजूद और इनसे परे मानव-मन की विचित्रता का स्पष्ट संकेत तब मिलता है जब साहा कठघरे में खड़ा होकर ऐसा बयान दे डालता है जिससे वे अभियुक्त बरी हो जाते हैं, जिन पर उसने खुद मुकद्दमा दायर किया था।

हृदय-परिवर्तन की कहानियों में मानवीय दुर्बलता को नयी परिस्थितियों के आलोक में रखे जाने की योजना की जाती है। लेकिन उन्हीं स्थितियों के छोर पर एक ऐसा मुकाम आता है जहाँ ये पुरुष पात्र नारी पात्रों से सर्वथा अलग प्रतीत होते हैं। नारी हो या पुरुष-इन पात्रों का अलग-अलग संसार एक नये रूप में सामने आता है। और यह तय है कि इन कहानियों के पढ़े जाने के बाद, कोई भी पाठक अपने-आप में एक मानसिक बदलाव महसूस कर सकता है।

नयी दिल्ली,
26 जनवरी, 1990

- रणजीत साहा

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