कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
''क्यों, अच्छी-अच्छी
रंग-बिरंगी साड़ियां खरीदकर अपनी बेटी को नहीं सजाती।''
''बस भी करो।'' यह कहकर
वह बड़ी खुशी से उसके लिए शर्ट-पैण्ट के कपड़े देखने लगती।
अभी-अभी शाश्वती के चेहरे
पर वही पुरानी चमक अचानक फैल गयी।
''इस स्मृति-मन्दिर के एक
कमरे में दीवार से जुड़ा बुकसेक होगा। बचपन से ही उस लड़के को इसका शौक
था...''
थोड़ी
देर के लिए रुकी फिर धीमे स्वर में बोली, ''उसे शौक था कि एक कमरा ऐसा
होगा जिसमें दरवाजा और खिड़की के बाद जो जगह बचेगी वहीं सिर्फ किताबें
होंगी। बीच में एक छोटी-सी चौकी बिछी होगी....उस पर एक खूबसूरत-सी चादर
रहा करेगी। खिड़की के पास एक कुर्सी और एक मेज होगी।...स्कूल के दिनों से
ही वह मुझसे इसी वरि में वात किया करता। इस पुराने सड़े-गले मकान में
बैठकर वह...''
''अरे वह तो विलायत और
अमरीका की कितनी बड़ी-बड़ी इमारतों में रहकर आया था। ' मालव्य का स्वर भीग
आया था।
''रहा
होगा, लेकिन वह तो परायी धरती थी न''...शाश्वती अचानक प्रबल आवेग में भरकर
बोली, ''यहाँ, उसकी अपनी जन्मभूमि पर मैं उसके लिए बनाऊँगी...उसके सपनों
जैसा एक भवन...जिसमें उसके सारे अरमान सजे होंगे और मेरे सपने भी।...पर ये
रुपये कव मिलेंगे? मुझसे देरी और सही नहीं जाती...''
निरुपम
यह सारी बातें सुनकर हँस पड़ा। उसने मालव्य के चेहरे की ओर देखकर कहा,
''अच्छा है, अगर इसी तरह वह खुश रहना चाहती है तो रहने दो। कोई आशा न
हो...और काम न हो तो जिन्दगी बड़ी वीरान और डरावनी हो जाती है। खास करके
शाश्वती जैसी भावुक औरतों के लिए। अस्पताल में बेड रखवाकर अगर हम अपना हाथ
खाली कर लेते तो उस बेड पर सुलाने के लिए जल्दी-से-जल्दी हमें उसे ही
भेजना पड़ता शायद।''
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