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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


लेकिन तभी उसके चेहरे पर उत्साह की आभा चमकी। थोड़ी-बहुत हेर-फेर के साथ उसने इसी तरह के पाँच-सात नक्शे तैयार कर रखे हैं।

''इधर देखो न, नीचे के तल पर रसोईघर, भण्डारघर और भोजन का कमरा होगा। ठीक रहेगा न? दरवाजा अन्दर से बन्द होगा। इससे चक्करबाजी भी कम होगी। रहने के लिए तो सारी सुविधा होनी चाहिए न! और मैं तो अब धीरे-धीरे बूढ़ी हो होऊँगी।''

''किसने कहा?'' मालव्य ने मुस्कराकर पूछा।

''भला कैसे नहीं होऊँगी? तुम तो नथन की माँ की तरह बातें वता रहे हो। छोड़ो...वह सब इधर देखो, रसोईघर में सारा इन्तजाम कर रखा है मैंने। कोई आदमी न भी रहे तो अपने से भी सारा काम कर लेने में असुविधा नहीं होगी।''

शाश्वती के चेहरे पर पहले जैसी चमक जैसे लौट आयी है, मानो वह अपने बेटे को पसन्दीदा कपड़े खरीदकर लायी है या कोई आकर्षक बेडकवर या खूबसूरत-सा तौलिया लायी है। और प्रसन्न होकर कह रही है, ''लड़के के लिए लायी हूँ। इस बार जब वह छुट्टी में आएगा...।'' वह इसी तरह तो बोलती थी। दिव्य को होस्टल में रहना पड़ता था। शाश्वती उसकी छुट्टी के दिन गिनती रहती। बीच-बचि में कहती, ''पहले के लोगों को आठ-दस-बारह-बीस बच्चे होते थे, वही अच्छा था। एक लडके की माँ के लिए बड़ी परेशानियाँ हैं। बेटा न हो, ईद का चाँद हो,'' यह सब कहती और हर छुट्टी से पहले एक-एक दूकान में जाकर देखती कि इस बार लड़के के लिए कौन-सी चीज खरीदी जाए। क्या उपहार दिया जाए उसे। लड़के कुछ वड़े हुए नहीं कि उनकी पसन्द की चजि खोजना भी एक समस्या हो जाती है। लड़कियों के मामले में यह सब झमेला नहीं होता। साड़ी हो या गहना या कि प्रसाधन का सामान-उनके लिए तो कोई उम्र नहीं होती।

मालव्य कभी-कभी हँसकर कहते, ''दूकान में आकर तुम्हारी जो हालत हो जाती है उसे देखकर तो यही लगता है कि दिव्य अगर लड़का न होकर लड़की होता तो तुम्हारे लिए यह कहीं अधिक प्रसन्नता की बात होती।''

शाश्वती तब कुछ गुस्से से वोलती, ''दुर...। अब वह सब नहीं भाता।''

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