कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
इसके बाद ही वह बच्चों की
तरह तेजी से अन्दर भागी गयी और कागजों का एक बण्डल उठाकर लौट आयी। अपनी
योजना का ढाँचा साथ लिये।
''यह देखो, किस तरह बनाया
है मैंने, जानते हो, स्कूल में मैं ड्राइंग में हमेशा फर्स्ट आती थी।''
मालव्य
ने मन-ही-मन सोचा, शाश्वती अचानक इतनी जल्दी-जल्दी बातें कर रही है। आखिर
बात क्या है? कहीं नर्वस तो नहीं हो गयी? शाश्वती अपने हाथ का नक्शा
फैलाये बैठी थी।
''देखो,
इस चित्र की तरह ही एक खूबसूरत-सी दों-मंजिली इमारत होगी। दुतल्ले पर तीन
कमरे होंगे। लेकिन एक माप के नहीं। वीच वाला सबसे बड़ा होगा-रास्ते की तरफ
कुछ आगे तक निकला हुआ। इस घर का ऊपरी हिस्सा मन्दिर के शिखर की तरह गोल और
गुम्बदनुमा होगा। बाकी दोनों तरफ के दोनों कमरे कुछ छोटे तथा कुछ पीछे की
ओर होंगे। इसमें से एक कमरा हमारा सोने का कमरा होगा और दूसरा मन्दिर का
गीत-घर।''
''गीत-घर?''
''हां,
इसमें हैरानी की क्या बात है? स्मृति-मन्दिर में इसी तरह की जगह होती
है-भजन-कीर्तन आदि के लिए। मन्दिर के बीचोंबीच एक दरवाजा रहेगा। लेकिन
यहाँ 'भज गोविन्द'... 'भज गौरांग' नहीं होगा। मेरा बेटा यह सब सुनकर कितना
हँसा करता था। उसे रवीन्द्र संगीत, अतुल प्रसादी और राजनीकान्त के गीत
पसन्द थे।...घर में सभी दीवारों पर फूलों की मालाएँ सजी रहेंगी-बीच में
अगरवत्ती जलायी जाएगी। लोग बड़े शान्त भाव से यहाँ आकर बैठेंगे। गीता के
सुर हवा में उड़ते-उड़ते
आकाश तक पहुँच जाएँगे...''
शाश्वती
का स्वर कॉपने लगा। दोनों आंखें आंसुओं से तर हो उठीं। तो भी, कुछ रुककर
वह आगे बोलने लगी, ''दुतला को छोटी चारदीवारी से घेर देंगे। बार देखकर
मालव्य सेन ने एक गहरी साँस ली। शाश्वती कहीं बनाएगी अपने डस
स्वप्न-मन्दिर को?
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