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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


शाश्वती ने सोचा था, सिर्फ उसके दस्तखत की देर है वरना पैसा तो मालव्य के हाथ में ही है। उसे पता नहीं था कि इतना कुछ होने के बाद भी एड़ी-चोटी का पसीना एक करना अभी बाकी है। इसी बीच वह किसी यौजना की रूप-रेखा बनाकर बैठी हुई थी। रुपये मिलने में हो रही देर के कारण वह निर्मम हो उठी थी।

एक दिन आजिज आकर वह बोली, ''क्या हुआ? तुम लोगों के वे एक लाख रुपये क्या सिर्फ कागज-कलम तक ही रह गये?''

मालव्य को बड़ी हैरानी हुई।

स्कें उम्मीद नहा थी कि ऐसा कोई सवाल वह पूछेगी।

वह छूटते ही वाले, ''अगले ही सप्ताह मिल जाएगा।'' शाश्वती की दिमागी हालत सामान्य होती जा रही है, यह देखकर वह बोले, ''क्या सोचा तुमने? अस्पताल के लिए वेड या फिर यूनिवर्सिटी को स्काँलरशिप देने के बारे में...इसके लिए भी तो वहुत पापड़ बेलने पड़ेंगे।''

''नहीं, यह सब कुछ नहीं।'' शाश्वती ने दृढ़ता के साथ कहा, ''मैं अपने बेटे के नाम पर एक 'स्मृति मन्दिर' बनवा दूँगी।''

मालव्य चौंक पड़े, ''स्मृति मन्दिर?''

''चौंक क्यों पड़े? तुमने कभी स्मृति मन्दिर शब्द सुना नहीं है?''

''नहीं, ऐसा तो नहीं है...पर वह कैसे होगा?''

इसी बीच शाश्वती के चेहरे पर से भावशून्यता का अंश काफी कम हो गया है। अभी-अभी जो आवेग और उत्साह उसके अन्दर उमड़ा है उससे उसके पीले चेहरे का फीकापन भी कम हौ गया। वह बोली, ''देख लेना, किस तरह होगा।''

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