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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


शाश्वती शान्त स्वर में बोली, ''ठीक है, लाओ कहाँ क्या लिखना है, बता दो। तुम लोगों के बार-बार कहने पर अब मैं यह सोचने की आदत डालूँगी कि मेरा कोई बेटा नहीं रहा, वह मर चुका है।''

...और वह शान्त नहीं रह पाती। आसुओ की धारा में बह जाती है।

जैसे पत्थर को छेदकर रुलाई फूट पड़ी हो।...

निरुपम को फिर यह सोचकर अच्छा लगा कि यह जीते-जागते आदमी की निशानी है।

दस्तखत का काम खत्म होते ही मालव्य ने आभार व्यक्त करते हुए निरुपम का हाथ थाम लिया। उम्र में वह उनसे छोटा है, फिर भी जैसे उनके साथ बराबर की आत्मीयता हो। अपनी भावुक वहन के इस असहाय पति के प्रति निरुपम की वराबर ही सहानुभूति रही है।

अभी हाल में एक मार्मिक घटना घट गयी है इसलिए शाश्वती को अबूझ मान लिया जाए, ऐसा नहीं है। वह शुरू से ही इस तरह की है। मालव्य के पास कभी भी बहुत ज्यादा सम्पत्ति नहीं रही। बड़ी तकलीफें उठाकर ही उन्होंने अपने बेटे को ऊँची शिक्षा दिलायी थी। लेकिन शाश्वती उसे मानने को तैयार नहीं थी। लड़के की पोशाक और खान-पान सब कुछ के प्रति वह बराबर एक तरह का असन्तोष व्यक्त करती रही है। दिव्यकुमार को अच्छी नौकर मिल जाने के बाद पैसे का अभाव कम हुआ था लेकिन वह भी कितने दिनों के लिए? विधाता के एक छोटे-से खेल ने ही सब तमाम कर दिया!

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