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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


''पता कैसे नहीं! लेकिन मर्द को कलेजे पर पत्थर रखकर अपना कर्तव्य निबाहना पड़ता है।''

''अच्छा। कर्तव्य हां...होगा।''

मालव्य ने तब इशारे से कहा, ''कोई लाभ नहीं, बेकार ही कोशिश कर रहे हो।''

निरुपम भी बोला, ''तुझे तो कुछ भी नहीं करना, शाश्वती। सिर्फ एक जगह दस्तखत भर चाहिए। अकेले इनकी सही से जब काम नहीं हो रहा तो तू कर क्यों नहीं देती?''

''कभी नहीं।'' शाश्वती की आँखें फिर जल उठीं, ''किस हैसियत से दस्तखत करना होगा? स्वर्गीय दिव्यकुमार सेन की माँ बताकर? क्यों? छी-छी, भैया! रुपया क्या ड्तनी बड़ी चीज है?''

निरुपम ने गम्भीरता से कहा, ''भई, रुपया तो हमेशा ही बड़ी चीज रहा है। हां...उसे गलत रास्ते से नहीं आना चाहिए, बस। नहीं लूँगी, कह देने या इनकार कर देने से वह कम्पनी क्या तेरी भावना की कदर करेगी? बल्कि उन्हें तो बड़ी सहूलियत हो जाएगी। ये रुपये तू अपने लिए ही खर्च करना, यह तो मैं नहीं कह रहा। बेटे के नाम से चाहे तो किसी मिशन को या अस्पताल को दान में भी दे सकती हो।''

''दान में?''

''ही। रुपये कुछ कम तो नहीं हैं। किसी अस्पताल के लिए बेड दिया जा सकता है.. यूनिवर्सिटी के किसी तेज विद्यार्थी के लिए स्कॉलरशिप की व्यवस्था हो सकती है जो कि दिव्य के नाम से बराबर जुड़ा रहेगा।''

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