कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
शाश्वती
रुँधे स्वर से बोली, ''क्या बताऊँ भैया?...बस एक ही उद्देश्य है...कौन-सा
लक्ष्य?.. .क्ष्य नहीं लाख...एक लाख रुपये...कम्पनी देगी?...मेरे बेटे की
कम्पनी?''
कोई
सवाल नहीं, हैरानी नहीं, जैसे ये सारे शब्द शाश्वती नामक स्त्री के दिमाग
से नहीं निकल रहे बल्कि उसकी जबान से टप...टप...टपक रहे हैं।
...भावशून्य, और फीका
उदास-सा चेहरा।
''एक लाख रुपये रो लड़के
की कमी पूरी हो जाएगी, भैया?''
अचानक...एक
अप्रत्याशित ढंग से उस भावशून्य चेहरे पर चिनगारियाँ-सी फूट पड़ती हैं,
''ओह, इसीलिए ये इतने दिनों से प्रमाण-पत्र जुटाने की दौड़धूप मंब लगे
हैं।''
पथरीली
प्रतिमा के मुँह से पहली वार इतनी बातें सुनने को मिलीं। इतने दिनों तक जो
आंखें मरी मछली की आँखों की तरह बुझी-बुझी थीं, उनमें अचानक ही जैसे आग
चमक उठी थी।
इस
जोरदार दलील को सुनकर मालव्य सेन ने सिर झुका लिया। लेकिन निरुपम को लगा
कि यह ठीक ही हुआ। पत्थर में प्राणों का संचार हुआ है। वह यह भी समझ गया
कि इस प्रमाण-संग्रह के कार्य में भले ही उसने मालव्य की कोई मदद न की हो
लेकिन शाश्वती की अनुभूतियों के घेरे में वह है।
जबकि शाश्वती झुकने को
एकदम तैयार नहीं।
''दस्तखत?
उस कागज पर दस्तखत करूँ मैं? भैया, तुम लोग क्या कुछ कर सकते हो और क्या
नहीं? ओह, जिसने इतनी मेहनत करके यही साबित किया कि मेरा बेटा नहीं है?''
शाश्वती का चेहरा और कठोर हो गया, ''वही जाकर भिखारी की तरह माँग ले,
खमियाजे की रकम।''
''इस
तरह की बातें क्यों कह रही हो, शाश्वती?'' निरुपम का स्वर बुझा हुआ था।
''दिव्य के चले जाने का दुख क्या सिर्फ तुम्हें ही है? उन्हें नहीं?''
शाश्वती उदास स्वर में
बोली, ''क्या पता?''
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