कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
इसलिए
उस पुरानी सन्दूक से, जिसमें जीवन-भर कुछ-न-कुछ जमा होता रहा है,
दिव्यकुमार के पुराने प्रमाण-पत्र निकाले जा रहे हैं। जन्म-दिन वाली पहली
तसवीर के साथ ही अब तक की अधूरी जिन्दगी की अलग-अलग उम्र की तसवीरें उनके
सभी तरह के प्रमाण-पत्रों और सनदों को निकालना पड़ रहा है क्योंकि सिर्फ
पढ़ने-लिखने में ही नहीं, खेल-कूद में भी उनका विशिष्ट स्थान था। उनकी
विदेश-यात्रा, नौकरी-प्राप्ति आदि के जो भी प्रमाण-पत्र हो सकते हैं
उन्हें जमा करने पर ही वह उपक्रम डी. के. सेन के परिवार को एक लाख रुपये
देगा, क्षतिपूर्ति के रूप में। फिर कार्यकाल में मृत्यु होने की वजह से भी
कम्पनी कोई अनुग्रह राशि दे दे।...अविवाहित तरुण दिव्यकुमार सेन के परिवार
मैं सिर्फ श्रीमती शाश्वती सेन और श्री मालव्य सेन ही हैं।
उनकी माँ और पिता।
सारे
प्रमाण-पत्र जुटाने में और कम्पनी की बहानेवाजी में काफी दिन निकल गये
हैं। जान पड़ता है, इस बार मालव्य सेन की दौड़धूप खत्म हुई, लेकिन रास्ता
जहाँ खत्म होता है वहीं एक बड़ा पत्थर रास्ता रोके खड़ा रहता है।
इस
अकाल मृत्यु की क्षतिपूर्ति के लिए जो कुछ मिलेगा उसकी प्राप्ति पर दम्पती
के हस्ताक्षर चाहिए लेकिन शाश्वती से हस्ताक्षर कराएगा कौन? वह तो यह
मानने को ही तैयार नहीं है कि उसका बेटा अब इस दुनिया में नहीं रहा। लड़का
मर चुका है। लेकिन उसका कहना है-''मेरा बेटा समन्दर तैरकर बच जाएगा। वह
धरती के किसी-न-किसी कोने में कहीं-न-कहीं जरूर है...वह एक दिन लौट आएगा।''
शाश्वती
जैसे एक अलग चेतना के साथ सबसे दूर खड़ी हो गयी है, कुछ भी उसके मन-मानस
में प्रवेश नहीं करता। वह अगर खुद कुछ कहती भी है तो जैसे अवचेतन मन से
लेकिन मालव्य सेन को तो सारी सच्चाई का सामना करना पड़ रहा है।
निरुपम
इस दायित्व को उठाने के लिए तैयार हुआ। उसने कहा, ''ठीक है...मैं देखता
हूँ।'' वह इसी घर में आ गया। प्रायः आता भी रहा है। उसका घर पास ही है
लेकिन बहन की थाह अब भी उसे नहीं मिलती। ''भैया खबरदार, भाग मत जाना।
तुम्हारे लिए कचौड़ी बना रही हूँ।'' कहकर भी वह अब उसके सामने नहीं आती। वह
अब यह भी नहीं देखती कि किसी ने भैया को एक कप चाय बनाकर भी दी है या
नहीं। निरुपम अपने जीजा से बात कर बाहर से ही लौट जाता है। आज भीतर आते ही
उसने अपनी बात कही।
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