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किर्चियाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


आशापूर्णा की कहानियों के तीन प्रधान गुण बताये गये हैं, वक्तव्य प्रधान, समस्या प्रधान और आवेग प्रधान। लेकिन इन तीनों घटकों का अनुपात कुछ ऐसा मिला-जुला होता कि इन्हें सहज अलगाना आसान नहीं होता। इसी तरह जीवन के तिक्त, रिक्त और मधुसिक्त-तीनों ही प्रसंग ऐसे मिले-जुले रूपों में आते हैं कि हम जीवन को जिस रूप में जानते हैं और पा रहे होते हैं-उसकी एक प्रामाणिक झलक हमें मिल जाती है। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि सभी साहित्यकार कमोबेश ऐसा ही

तो करते हैं-आशापूर्णा देवी का वैशिष्ट्य क्या है? उत्तर होगा कि वे स्थितियों को या पात्राओं को गौरवान्वित या 'ग्लोरिफाईं नहीं करती। कहानी का निर्दिष्ट लक्ष्य या वक्तव्य आवेगपूर्ण प्रसंगों के आरोह-अवरोह में नहीं भटकता। अपनी अन्विति में उनकी कहानियों की तिर्यक् व्यंजना पाठकों में एक अपरिचित-सी तिलमिलाहट भर देती है। क्योंकि इन कहानियों का समापन किसी समाधान से नहीं, सवाल से होता है जो पाठकों को कोचता और कुरेदता रहता है। और आलोचकों ने यह स्वीकारा है कि कभी-कभी यह अन्त मोपासाँ की कहानियों जैसा प्रतीत होता है। अपनी सहजता के चलते, अन्त चाहे जितना भी नाटकीय प्रतीत हो (किर्चियाँ, डॉटपेन, हथियार, आहत पौरुष, ठहरी हुई तसवीर, नागन की पूँछ, वहम, ऐश्वर्य, पद्मलता का स्वप्न और ढाँचा जैसी कहानियों में) वह विश्वसनीय और व्यंग्यपूर्ण जान पड़ती हैं।

यह सम्भव है कि पाठकों को चौथे दशक में लिखी गयी कहानी और आठवें दशक में लिखी गयी कहानियों में अन्तर नजर उतए। यह स्वाभाविक ही है। आशापूर्णा की तब की कहानियाँ नारियों के जागरण-काल की रचनाएँ हैं जिनमें अशिक्षा, अज्ञान, रूढ़ियों, नारियों पर किये जानेवाले अत्याचारों की पृष्ठभूमि में समाज के निर्माण में नारी की भूमिका से सम्बन्धित हैं। जबकि परवर्ती कहानियाँ आर्थिक और सामाजिक दबावों से उत्पन्न स्थितियों में नारी के संघर्ष और अस्पष्ट होती जाती नैतिकता और मूल्यहीनता के सन्दर्भ में नारी द्वारा खुद बनाये गये सन्दर्भों और आदर्शों के बीच झेलती उसका असमंजस है। कहानियों में पात्रों की मानसिकता से अधिक स्थितियों की गत्यात्मकता पर जोर होता है और एक सामान्य पात्र भी किसी विशिष्ट क्षण में असामान्य प्रतीत होने लगता है। 'इज्जत' की किशोरी हो या 'पद्मलता का स्वप्न' की पद्मा, 'आहत पौरुष' का बामन निताई, या फिर 'किर्चियाँ' की बूढ़ी मौसी सरोजवासिनी,-सभी एक निर्णय पर पहुँचने के साथ ही एकबारगी विशिष्ट हो उठते हैं।

इस दृष्टि से ढाँचा शीर्षक कहानी का केशव राय अपने आप में और 'बेकसूर' का बलराम साहा की यात्रा एक नामालूम छोर से, या दूसरे शब्दों में, एक आम पात्र की तरह शुरू होती है और अपने इर्द-गिर्द के चक्रिल परिवेश से अचानक उनमें ऐसा परिवर्तन् होता है कि एक नया मानवीय अर्थ उजागर हो जाता है। केशव राय अपने ही चक्रान्त में फँसकर अपनी तमाम जमीन-जायदाद के एक भागीदार, अपने से लगभग चालीस साल छोटे बालक की हत्या को उतारू हो जाता है। अपने कथा-न्यास-क्रम में यह कहानी पाठक की शिराओं में जबरदस्त आतंक भर देती है। यह मानवीय और पाशविक कथा-यात्रा अचानक मानवीय हो उठती है और तब जान पड़ता है कि जब तक दया और करुणा के बीज जीवित हैं, मानव दानवता पर विजय पाता रहेगा।

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