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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


''मैं रहूँगा,'' इतना ही कहा उन्होंने...बहुत ही धीमे से। वह मन-हीं-मन जैसे दोहरा रहे थे...जीवन क्या है...कमल-पत्र पर ओस की एक बूँद...। आखिर तुम ऐसी बातें क्यों कहती रही, सविता? क्या यह सब मजाक था...?

धुएँ से आंखें चुन-चुना रही थी....आग की लपटें झुलसा देना चाहती थीं। सरोजाक्ष थोड़ा पीछे हट गये। उन्होंने देखा सविता के पति आग के बहुत पास खड़े हैं। सविता के देवर ने उनके पास जाकर कहा, "भैया...तनिक इधर चले आओ।"

वह नहीं हिले। बोले, "ठीक है...!''

बहुत देर के बाद श्मशान से वापस लौटते हुए सविता के पति सरोजाक्ष के एकदम पास आकर खड़े हुए। आँखों में अजीब-सा सूनापन लिये बोले, "मैंने सविता को जो वचन दिया था...उसे निभा न पाया। उसने कहा था...चाहे जैसे भी हो....और चाहे जहाँ भी रहें...उसकी मृत्यु के समय आपको खबर जरूर भिजवा दी जाए। नहीं हो पाया। समय नहीं मिला। अपने आखिरी क्षणों में भी वह मुझ पर यही दोष मढ़ गयी। मरते समय उसने यही कहा था...

''तुमने मेरी बात नहीं रखी...न...?''

सरोजाक्ष चौक पड़े थे। ऐसा लगा किसी के सवाल ने अचानक उन्हें पीछे से आगे धकेल दिया।

किसे? आखिर सविता ने किस पर यह दोष मढ़ा था।

''उसने क्या इस बात को समझा होगा कि सचमुच समय नहीं मिला,'' सविता के पति ने एक बार फिर कहा।

समय नहीं मिला...। समय मिल न पाया...यही तो अन्तिम सत्य है। समय नहीं मिलता....वह किसी को नहीं बखाता...इस बात को कौन याद रखता है?

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