कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
ऐसा जान पड़ा कि सरोजाक्ष
उधर से सुन पड़नेवाली बातों को ठीक से समझ नहीं पा रहे हैं।
अगर ठीक से सुन या समझ पा
रहे थे तो उनके पास कहने को ऐसा कुछ नहीं था....जो बोल सकें।...चुप ही रहे।
काफी
दैर के बाद बोले, ''ठीक है...मैं आ रहा हूँ।'' और चोगे को हौले से नीचे रख
दिया। इसके बाद आहिस्ता से बुदबुदाये, ''ठीक है....आया।''
ऐसा उन्होंने किससे कहा
आखिर?
नहीं...किसी को भी नहीं
कहा।
कमरे में या आस-पास तो
कोई नहीं था। शायद ऐसे ही बुदबुदा बैठे थे।
खुली कलम वैसी-की-वैसी
पड़ी रही। देह पर कुरता डालकर वह बाहर निकल
आये। उन्होंने और भी
धीरे-से...जैसे अपने आपसे फुसफुसाकर कहा, "फिर तो यही लगता है कि कहानी
पढ़ी नहीं?''
सविता
के बाल-बच्चे जोर-जोर से रो रहे थे। सविता के पति चौकी पर पत्थर की तरह
खामोश बैठे थे। सविता के देवर ने कहा, "हां....फोन मैंने ही किया था। भाभी
आपको बहुत याद करती रहती थीं। वैसे कुछ हुआ नहीं था। कछ भी नहीं। सुबह
उठकर चाय पी....सब्जी काट-कूटकर रखी। इसके बाद इतना ही कहा 'तबीयत ठीक
नहीं लग रही।'....और बस! सारा खेल खल। आपके साथ हजारीबाग में आखिरी बार
मुलाकात हुई थी...कितना मजा आया था...कैसी नोंक-झोंक होती रही...''
थोड़ी
देर तक चुप रहने और सुबक लेने के बाद उसने आगे बताया, "भैया की तरफ देखने
का तो साहस तक नहीं जुटा पाता....आप अगर आखिरी घड़ी में...।'' सरोजाक्ष ने
उसे रोक दिया।
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