कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
सरोजाक्ष
ने मन-ही-मन कहा, "मैंने भी कहाँ याद रखा...तुम्हारी बातों को भी याद नहीं
रख पाया।...मैं तुम्हें पढ्ने को दे नहीं पाया तुम्हारी कहानी...मेरी
कहानी...हम दोनों की कहानी। मैं तो हमेशा यही सोचता रहा कि अगर हमारी वह
कहानी लिखी भी गयी तो वह भी साधारण-सी होगी...एकदम औसत दर्जे की
हलकी-फुलकी।
हालाँकि
तुम जी-जान से उसकी जाँच-परख करती और फिर निराश हो जाती। तुम्हारी उसी
हताशा भरी तसवीर की बात सोच-सोचकर मैंने अपनी उस कहानी को परे हटाकर रख
दिया था बल्कि एक तरह से निकाल ही फेंका था।
...लेकिन
अब कैसा लग रहा है...पता है तुम्हें? अब जान पड़ रहा है कि वह कोई ऐसी
साधारण भी नहीं होती। तुमने जो खरा अनुभव दिया है उससे वह कहानी सचमुच
असाधारण हो उठती।
हां,
सविता...। तुम्हारे पति तुमसे किया गया वायद निभा नहीं पाये इसलिए वह
दुःखी हैं। लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि इस तरह अफसोस करना किसके प्रति है?
सविता के देवर ने धीरे-से
कहा, "आप हमारे साथ ही चलिए न...थोड़ा-सा शरबत पी लीजिएगा...।"
सरोजाक्ष ने माफी माँग ली
थी।
''तो श्मशान से सीधे घर
चले जाएँगे?''
सरोज हौले-से मुस्कराये,
"हां, वहीं तो वापस जा रहा हूँ। श्मशान से कहीं लौट पाना मुमकिन भी है?''
नहीं।
उनके मन में रुक जाने की तनिक भी इच्छा नहीं। घर जाकर बिस्तर पर पड़ जाना
चाहते हैं...देर तक सो जाना चाहते हैं। उनकी इच्छा यही हो रही है कि वह
अकेले में सविता से चुपचाप पूछ सकें, "सविता...तुम किससे क्या कहना चाहती
थी...?"
लेकिन चाहने से ही क्या
वह पूरी हो जाती है?
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