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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


''तो फिर उपाय क्या था...? जीवन के शुरुआती दौर में अपनी भूमिका जो जिस तरह चुन लेता है....उससे उसे रिहाई मिलती है भला कभी ?'' सरोजाक्ष ने सफाई दी थी।

इस बात में जरा भी सचाई न थी।

ऐसा होता तो....जिसे कहते हैं...उदे बादलों से पटा आकाश....पचास के पेठे में पड़े जी को उदास कर देने वाली चंचल बहार...के साथ ही दूरभाष पर बार-बार दूर-सन्देश आ रहे हैं, ''हमारी कहानी तैयार नहीं हुई? क्या कर रहे हैं....जनाब....। हमारा तो भट्ठा ही बैठ जाएगा। पूरा कर डालिए....खत्म कर डालिए। आपकी कलम तो जादुई कलम है...वस थामने भर की ही देर है।...बस यही ख्याल रखिएगा कि भरपूर हाल हो....पाठकों को खूब गुदगुदाये....माने आप जैसा लिखते रहे हैं...''

इस तरह अपने अलसाये चित्त को फिर सहेजना पड़ा था।

ऐसी ही हँसी से भरपूर एक कहानी का प्लॉट तैयार करने के लिए वह कलम लेकर बैठ गये थे। सम्पादक महोदय ने एकदम सही फतवा दिया था कि बस कलम पकड़ने भर की देर है...कहानी अपने आप पन्ने पर उतरती चली जाएगी।...ऐसी ही घड़ी में एक प्याली चाय की मिल जाती तो...

इस बारे में कुछ कहना चाह ही रहे थे कि तभी टेलीफोन की घण्टी झनझना उठी...क्रिड़्. क्रिड़्....ड़्....। यह सब बड़ा ही बेहूदा लगता है। जी उचाट हो आया....कलम पर ढक्कन चढ़ाये बिना ही सरोजाक्ष बाबू उठ खड़े हुए।

''जी, कौन...?'' उन्होंने पूछा।

इसके बाद आगे कुछ बोल न पाये।

नहीं....कुछ भी नहीं।

दूसरी तरफ से आवाज आती रही।

आखिर उधर से क्या कहा जा रहा था?

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