लोगों की राय

कहानी संग्रह >> किर्चियाँ

किर्चियाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

3465 पाठक हैं

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


सविता ने तब कुछ कहा नहीं था...कोई हंगामा खड़ा करने के बदले अपने चेहरे और आंखों से फूटने वाली एक खास तरह की चमक से खनक पैदा करते हुए कहा था, ''तुम्हारा ऐसा कहना कोई नयी बात नहीं है। ऐसे उपदेश मैं बराबर सुनती और साधती रही हूँ। बहुत दिनों से यह जरूर सोचती रही थी कि इधर किसी ग्वाल-बाल के साथ मेरी मुलाकात नहीं हुई है। लग रहा था कि मैं चरवाहे का हिज्जे तक भूल गयी हूँ...बस यही एक साधना बाकी बची थी जो मैं चाहकर भी पूरा न कर पायी। तो फिर ऐसे झूठे मनसूबों से क्या लेना-देना? उससे तो कहीं बड़ा सच सुख है कि तुम और हम आमने-सामने खड़े हैं। अब भी अगर तुमने माली के हाथों खाना खाने की कसम खा रखी है....और वहीं टिके रहने की जिद ठान रखी है तो फिर मुझे यहीं से विदा होना होगा।''

और फिर हुआ यही कि दोनों ही जमे रहे।

सरोजाक्ष ने तब एक महीन-सा हिसाब लगाकर देखा था....सविता की उम्र क्या होगी यही चालीस के आस-पास होगी....दो-चार महीने इधर या चार-छह महीने उधर। बाल-बच्चे बड़े हो चुके हैं और यह सब बता देने का समय भी सविता को तभी मिल गया था।

सविता के पति ने भी कहा था, ''अरे महाशय...आप लोग ठहरे गुणी-मानी लोग। आप लोगों के साथ मिलना-जुलना तो बड़े नसीब से होता है। आपकी बचपन की बान्धवी ने हौसला न बढ़ाया होता तो....मैं कहीं आगे बढ़ पाता!''

सविता के देवर ने भी आगे बढ़कर कहा, ''लीजिए....भाभी के साथ आपकी इतनी पुरानी जान-पहचान है....आश्चर्य है! और आपकी रचनाएँ पढ़कर तो हम सब हँसते-हँसते लोट-पोट...?" कहते-कहते रुक गया था बेचारा। शायद यह सोचकर कि ऐसा कहना शायद ठीक नहीं हुआ।

उस दिन....शाम को उस पत्थर के चबूतरे पर ही....बातें करते-करते सविता ने बताया था, ''हँसी-मजाक तो करते ही हैं...खूब हँसते हैं और क्यों न हँसें...?''

''सारी जिन्दगी तो तुम विदूषक की भूमिका ही निबाहते रहे....।'' सविता ने टोका था।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book