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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


''...देखो, सब कुछ को मजाक बनाकर पेश करने की वजह से तुम्हारा लोक-परलोक ही नहीं, अगला जनम भी बिगड़ गया है। हमारी कहानी क्या हँसी-मजाक की चीज है?''

सरोजाक्ष ने हँसते हुए कहा, ''मजाक की बात नहीं है...लेकिन इस पर जोर देकर कहना कुछ मुश्किल है। लेकिन यह सब दबी जुबान से कहा जा सकता है...इसमें सन्देह नहीं।''

सविता ने अपनी आँखें उठाकर कहा, ''तो फिर इसमें कलम का जादू कहां रह गया...साधारण के ऊपर असाधारण...आम के बहाने खास की बात लिखने का अर्थ क्या रहा? और फिर लेखक की सत्ता का मतलब ही क्या रह जाता है? इतना कुछ तो किसी अखबार का खबरनवीस भी लिख सकता है। तिल जैसी छोटी-सी चीज की क्या बिसात है भला...लेकिन उसी से बनती है कोई तिलोत्तमा।''

सम्भव है इसके बाद से ही उस मोटी पाण्डुलिपि को पूरा करने में जुट गये थे सरोज बाबू। नहीं मालूम...उसमें ही साधारण को असाधारण बनाकर प्रस्तुत करने का कोई उदाहरण है भी या नहीं। और तिल-तिल जोड़कर सरोजाक्ष ने कौन-सी तिलोत्तमा का सृजन किया था? क्या इसकी रूपरेखा सविता ने तैयार की थी? इस प्रश्न का उत्तर 'हां' के सिवा और कुछ नहीं हो सकता।

उसने कहा था, ''तुम तो किसी बात को मानने के लिए राजी नहीं...। लगता है तुम कोई आधार स्वीकार ही नहीं कर पाओगे...इस तरह से अलग-थलग हो। तो भी हमारी बड़ी इच्छा है कि हमारी कहानियाँ कच्ची से पक्की पाण्डुलिपि में अंकित हो जाएँ। अगर मैं खुद यह सारा कुछ लिख पाती...!''

''इन सारी बातों से क्या होगा...इस बुढ़ापे में...'' सरोजाक्ष ने शायद ऐसा ही कुछ जोड़ा।

''लो, सुनो...हमारी और तुम्हारी उमर ही क्या हुई...कि बीच में बुढ़ापा आ टपका...इसलिए कि वे लोग बूढ़े हो गये। वे लोग तो अब भी वहीं हैं...जहाँ थे तेरह सौ तैंतालीस के दिसम्बर में...।''

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