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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


''अरे जब उन्हें इतना ऊँचा उठा दिया है तो रहने भी दो। नीचे उतारा नहीं कि यही सोचकर झक मारते रहना होगा कि क्या कुछ था...क्या नहीं था...और अब क्या रहा...क्या गया...?''

''बिलकुल नहीं। लिखना, सब कुछ था...सारा कुछ है और सबका सब बना रहेगा।...लो, मैंने यह रूप-रेखा तैयार कर दी।''

''सब कुछ था...सब वना रहेगा? सविता...तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है? रहने और न रहने का सारा हिसाब क्या किसी खास ढर्रे में लिखा जाता है?''

सविता अड़ी हुई थी, ''क्यों नहीं? मेरा कहना है सुख भी रहेगा...प्यार भी रहेगा। पहला-पहला प्यार...यह प्रथम प्रेम...यह क्या खो जाने की चीज है! नहीं बाबू साहव...नहीं! यह तो एकदम आत्मा की तरह होती है।...यह न तो खोती है न खत्म होती है और न ही दम तोड़ देती है।...लेकिन प्यार है...प्रेम है इसलिए नसीब में सुख नहीं...और अगर सुख है तो प्यार-मोहब्बत नहीं...ये सारे पुराने और सड़े-गले विचार से बाज 'आओ तो तुम सब। नया कुछ ग्य-बजा-सुना नहीं सकते तुम लोग? कोई नया सच...कोरा सच?''

नया...कोरा...सच?

सरोजाक्ष हँस पड़े थे। फिर बोले, ''कई चीजें ऐसी हैं जो चिरन्तन हैं...शाश्वत हैं। अगर मैं ताल ठोंककर कोई नयी बात कहने गाँ कि एक ही पात्र में पानी भी है और आग भी...तो ठीक है, रहा करे। ऐसा कहना बेतुका या हास्यकर न होगा? आग और पानी एक ही ठौर नहीं रह सकते। या तो पानी के चलते आग बुझ जाएगी या फिर आग पानी को सुखा डालेगी।...यही सच जीवन का अमोघ सच है...जाना-पहचाना सच।

''हाथी और पाँव अन्धों वाला सच,'' सविता ने तिलमिलाकर कहा था। कुछ वैसे ही जैसे कि घर की कोई झक्की बुआजी कहा करती हैं। उसने आगे जोड़ा, ''जिन्दगी में सारा कछ क्या साँचे में ढला होता है? तुम जैसे लेखक ही खामखाह अकड़ते हैं...वे यही समझते हैं कि हमने सब कुछ जान लिया है...और जो समझना है...समझ चुके हैं। अब भला क्या बचा है? मनोविज्ञान की तहों तक पहुँचकर सारी दुनिया को इसकी बारीकी सिखा रहे हो? और इसकी तात्त्विक व्याख्या कितनी जटिल है.. पता है? ईश्वर की सत्ता पर विचार करते हुए भी तुम वैसा ही करोगे...उसे अंकगणित के आकड़े में, साँचे में ढालकर कहोगे...ऐसा होने पर यह नहीं होता...और वैसा तो कभी नहीं होता। मैं कोई जान-बूझकर तुम्हें तीसमार खीं नहीं कह रही। हमारे जो आधार हैं उन्हीं पर हमें अपनी कहानी लिखनी है...समझे कि नहीं?''

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