कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
सरोजाक्ष
ने मुस्कराते हुए कहा था, ''हां, गलत नहीं कहा तुमने...वैसा लिखने पर तो
घुनाक्षरी जैसे लोगों को भी ऐसा सन्देह नहीं होगा। और नायक...जो भी
हो...एक भले आदमी की तरह अपनी जिन्दगी बिताने लगा।
लेकिन
नायिका का...'' ''नायिका पर भी जो कुछ बीती...उसे भी लिखना...'' सविता
झुँझला उठी थी...''उसे क्या कहीं तुम गड्ढे में फेंक दोगे?''
''जैसा
भी हुआ...ठीक वैसा ही। वाह! उसकी तो किसी दूसरे मर्द के साथ शादी हो गयी
थी...ठीक है? इसके बाद...पति के साथ काँटा फिट...माने खूब छनने लगी...''
''आह...हा...खूब छनने
लगी...और काँटा फिट...यह भी कोई साहित्यिक भाषा हुई? लिखोगे...दोनों का
प्रेम प्रगाढ़ होता गया...ठीक है''...
''ऑल
राइट...दोनों का प्यार बढ़ता गया। माँ लक्ष्मी की कृपा से घर-गृहस्थी में
भी रौनक आयी। माँ षष्ठी ने भी कृपा बरसायी...इसके बाद?''
सविता ने त्योरी चढ़ाकर
सवाल पलट दिया, ''और इसके बाद...मैं ही सब कुछ कहूँगी? ऐसा तय होता तो मैं
ही सारी गाथा लिख न डालती!''
''क्यों, ऐसा क्या
है...नायिका के बारे में सारी बातें बताओगी नहीं? इसके बाद क्या हुआ...हो
सकता है मैं कुछ समझ नहीं पा रहा।''
''मुझे
जान-बूझकर मत छेड़ो। दूसरे-दूसरे लोगों के बारे में इतना कुछ जोड़-तोड़कर तुम
सब लिखते रहते हो...और अब तुम्हें कुछ ढूँढे नहीं मिलता?''
''मैं
तो एक हास्य लेखक हूँ। बिदूषक। फिर तो ऐसा है कि मैं तुम्हारी कहानी को
अपने इलाके में खींच लाऊँगा। लिखूँगा...इसके बाद विदेशी-यात्रा के दौरान
उन दोनों में एक बार फिर मुलाकात हुई। नायक को एक बगीचे...के माली के
हाथों अधपका चावल और जली हुई दाल खाते देखकर नायिका का पुरातन प्यार मचलने
लगा...उसने नायक को बार-बार बुलाना और सुबह, दोपहर, शाम, रात खिलाना शुरू
किया और देखते-हीं-देखते बेचारा मोटा-सोटा हो गया।...''
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