कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
उनकी
आरम्भिक कहानियों में, जिनमें से एक 'अभिनेत्री' भी हे, पारिवारिक रूढ़ियों
का धारावाहिक अन्तर्द्वन्द्व देखा जा सकता है। स्त्री को एक ही पारिवारिक
ढाँचे में कैसी-कैसी भूमिका निबाहनी पड़ती है, कभी प्रेयसी की, कभी गृहिणी
को, कभी सास की और कभी अभिभावक की। इस उत्तरदायित्वपूर्ण अभिनय में
भावनात्मक और व्यावहारिक सन्तुलन बनाये रखना पड़ता है। यह अभिनय जीवन में
जितनी कुशलता और तटस्थता से, साथ ही स्वाभाविकता से निबाहा जाता
है-पारिवारिक जीवन उतना ही सफल और सार्थक होता है। ऐसा नहीं कि कटुता के
क्षण नहीं आते, व्यक्तित्व की टकराहट आड़े नहीं आती लेकिन एक योग्य स्त्री,
इन स्थितियों को बड़ी सहजता से जीती और झेलती है। एक किशोरी नवेली बहू से
लेकर युवा माँ और फिर प्रौढ़ा माता तक के तीन प्रमुख पड़ावों से गुजरती हुई
'अभिनेत्री' कहानी नाटकीय ढंग से उन्हीं पात्रों की मानसी-यात्रा को
रूपायित करती है। इस कहानी का रूप-न्यास भले ही शिथिल हो लेकिन जीवन का सच
और उसके साथ प्रमुख पात्रा नाटकीय समझौता और तालमेल ही Fस कहानी की
विशिष्टता है।
इसी
तरह 'सीमा-रेखा' की छवि का चरित्र भी सहज और सामान्य से अतिविशिष्ट हो
उठता है। भाई के घर अपने नीमपागल पति के साथ रह रही छवि अपने आपको किसी
तरह बहलाती रहती है। एक रात, भाई की बेटी के विवाह के मौके पर पति की
अस्वाभाविक हरकत के चलते और उसके बुरी तरह दुतकार दिये जाने के कारण छवि
हतप्रभ हो जाती है। यही अपमान उसके पति की जान का दुश्मन हो जाता है। अपने
मृत पति के साथ अँधेरे बन्द कमरे में पड़ी छवि इस हादसे के बारे में तब तक
मुँह नहीं खोलती जब तक कि बारात विदा नहीं हो जाती। कहानी खत्म होने के
पहले जब यह गाँठ खुलती है तो यह विश्वास नहीं होता कि इतने अपमान और अवसाद
के बीच इतनी सहजता और खामोशी से कोई पात्रा, अपनी अनुपस्थिति के बावजूद,
उपस्थित रह सकती है।
दूसरी
ओर 'पैदल सैनिक' (पदातिक) कहानी की जयन्ती, एक नयी पीढ़ी की युवती है। घर
के काम-काज से जी चुरानेवाली, अपनी दुनिया में मस्त। दिन-भर खाना पकाने,
बर्तन माँजने, कपड़े धोने और बच्चों की साज-सँवार में डूबी रहनेवाली माँ के
प्रति किसी की दिलचस्पी नहीं। और वही माँ एक दिन अचानक देर रात को अचेत
पड़ जाती है। घर-गृहस्थी का सारा ढाँचा चरमरा जाता है और लगता है सारी
दुनिया ही थम-जम गयी। जयन्ती जब इस घर का एक छोटा-सा सिरा थामना चाहती है
तो दूसरा छोर दिखाई नहीं पड़ता। और एक ही दिन में उसे पता चल जाता है कि घर
की छोटी-सी दुनिया दफ्तर और पार्टी की बहसों में लम्बी-चौड़ी भागीदारी से
नहीं चलती। वह उसकी माँ जैसी ही लाखों-करोड़ों माँओं के निरर्थक प्रतीत
होनेवाले निरुद्देश्य और जीवन के चूल्हे-चौके में झोंके जाने पर उससे
उत्पन्न होनेवाली ऊर्जा से चलती है। और तब उसे अपनी निरर्थकता का अहसास
कोंचने लगता है।
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