कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
''और
नायिकाओं के मन में कौन-कौन-सा तूफान उठा करता है,'' सविता के होठों पर एक
दबी-छिपी और शरारती मुस्कान खेल गयी थी, ''इसकी भी व्याख्या करना...मैं
देखूँगा।...तभी पता चलेगा कि तुम कितने उस्ताद लिक्खाड़ हो।''
इतना
कहकर सविता ने थोड़ी देर तक प्रतीक्षा की थी शायद। शायद वह वे तमाम
पत्र-पत्रिकाएँ खरीदा करती थी, जिनमें सरोजाक्ष घोषाल की रचनाएँ छपा करती
थी। उन्हें खरीदती थी...पढ़ती थी और निराश हो जाया करती थी। सम्भव है, वह
यह भी सोचती रही हो कि सरोज क्या इतना ही नादान है...इतना कुछ
बताया...समझाया...। लेकिन कोई चारा न था...। बात बन नहीं रही थी।
सम्पादक स्वीकार नर्हां
करेंगे। प्रकाशक आड़े हाथ लेंगे।
इस
बारे में कुछ कहते ही वे बीच में टपक पड़ते, ''उपन्यास...और वह भी
गम्भीर...सीरियस? आप भी अब गम्भीर उपन्यास लिखकर अपनी जात बिगाड़ने पर
तुले
हुए हैं, महाराज। और फिर...उपन्यास लिखने वालों की तो कोई कमी है इस देश
में? और सबके सब...एक से बढ़कर एक सीरियस। इससे कम तो कोई सोचता ही नहीं।
हम लोग हँसना-खिलखिलाना नहीं जानते...इसे हमारे साहित्यकारों ने एक तरह से
साबित कर दिया है। और सच पूछिए तो इस क्षेत्र में आप ही हमारे
हास्य-कौतुक-शिरोमणि हैं। अब आप अपनी रस-भरी कलम का रुख मत बदलिए।''
इसलिए सरोजाक्ष अपनी
रसपूर्ण लेखनी की दिशा नहीं बदल रहे...अपनी जात से चिपके हुए हैं।
कभी-कभी
उनके मन में आता टेक कि वे सारी सामग्री किसी छद्म नाम से छपवा
लेंगे...भले ही उसमें अपने घर से पैसे खरचने पड़े। लेकिन उनके मन में ऐसा
कोई उत्साह टिक नहीं पाता था। 'अगर छप सके तो छप जाय' जैसा मनोभाव उनके
अन्तमन के किसी कोने में अवश्य ही करवटें लेता रहता था।
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