कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
और यह सुनना था कि भले
आदमी ठठाकर हँस पड़े, 'नहीं चाहेंगे....इसे कोई भी पढ़ना नहीं
चाहेगा...पाठक मुझे पकड़कर पीटेंगे।''
इसके बाद भला वह कैसे
कहते...कि, ''आप क्या मेरी ही वजह से मार खाते हैं...।'' ऐसा कहा जा सकता
है भला?
नहीं कहा जा सकता।
इसीलिए
सरोजाक्ष बाबू की वह मोटी-सी पाण्डुलिपि जो न तो हँसी वाली थी और न रुलाई
भरी, थी तो सिर्फ एकान्त निराशा और आनन्द से स्पन्दित और मुखर...वह कभी
लोग-बाग की नजर में नहीं पड़ा। हालाँकि सविता ने कहा भी था एक दिन, ''कलम
हाथ में लेकर यह आटमी हमेशा विदूषक की ही भूमिका निबाहता रहा। कभी हमारी
कहानी क्यों नहीं लिखता!''
सरोजाक्ष ने कहा था,
''दुर पगली...। हम लोगों की चार आदमियों से जान-पहचान है...और तुम्हारे भी
बाल-बच्चे हैं।''...
''रहा
करें...इससे क्या आता-जाता है। तुम उनका कोई सही नाम और अन्ता-पता तो नहीं
लिखते? नाम-धाम बदलकर अपने मन के मुताबिक लिख सकते हो तुम। हमारे-तुम्हारे
सिवा दूसरे लोग क्या खाक समझेगे...?''
''तो इससे क्या फायदा?''
इसे सुनकर सविता ने मीठी
मुस्कान भरी थी।
सविता
चालीस पार कर गयी थी लेकिन उसकी मुस्कान की रगिमा अभी खो नहीं गयी। उसने
उसी तरह ताजी और मीठी मुस्कान के साथ कहा था, ''फायदा क्यों नहीं?
तुम्हारे दिल में उस समय कैसी-कैसी भाव-तरंगें मचला करती थीं, तुमने कभी
बताया भी था मुझे? तुम्हारी कहानियों के नायकों के मनोवैज्ञानिक निश्लेपण
के द्वारा ही उसका अन्दाजा लगे शायद। हालाँकि उनमें तुम इधर का भी बहुत
कुछ जोड़ देती है।''
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