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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


''आपने तो बहुत ही अच्छी जगह काम दिलवा दिया चाचीजी....वे दोनों भी बड़े अच्छे लोग हैं।....और मैंने तो उन्हें कहा तक नहीं...तो भी उन्होंने खुद अपनी इच्छा से ये सारे कपड़े दिये हैं।''

मैं मन-ही-मन हँसती रही। एक तरफ तो कोई भी छोटी-मोटी नौकरी पाने की चिन्ता में जनेऊ तक उतारकर रख देने की तैयारी और दूसरी तरफ ब्राह्मण का बेटा होने के बावजूद दूसरों के उतारे पुराने कपड़े पहन लेने में जरा भी शरम नहीं।

ठीक ही कहा गया है भात के आगे कैसी जात!

निताई के स्वर में उसकी खुशी झलक रही थी...''चाची माँ, क्या बताऊँ? खाना-पीना सब एकदम फर्स्ट क्लास है। वे जो खुद खाते हैं, वही मुझे भी खिलाते हैं। इसे ही कहते हैं....ऊँचा आचार और ऊँचा व्यवहार। मैं भी यही सोचता हूँ कि जिन्हें हम अपने पिता या गुरु की तरह मानते हैं उनसे भला इतनी दूरी कैसी? जात-पाँत का और छुए जाने का इतना विचार क्यों? ऐसे कैसे चलेगा? इससे तो हमारा भी नुकसान है और उनका भी। और वे दोनों खाते भी कितना हैं...बस दुनिया भर की अच्छी-अच्छी चीजें लाकर ढेर लगा देते हैं। ऐसा लगता है कि वे सामान लाते हैं....जमा करते हैं और फिर फेंक देते हैं या फिर मुझसे कहते हैं, निताइ सुन...वह सब हम नहीं खाएँगे अगर तुझे खाना है तो खा ले।....केक....पेस्ट्री और न जाने क्या-क्या? मैं तो उन सकके नाम भी नहीं जानता।''

मुझे उसकी बातें सुनकर हँसी भी आती और दुख भी होता। मैं यही सोचती कि जिसे ब्राह्मण वंश के होने का इतना गर्व था और जौ यहीं तक कह रहा था जनेऊ खोलकर रख दूँगा....वही...अब बिना किसी हिचक के जूते झाड़ रहा है....जूठा खा रहा है।

जाने भी दो...मुझे खामखाह के झमेला में पड़ना न पडे...यही बहुत है। लेकिन फिर भी मेरा जी कुछ उचाट-सा रहा।

"ठीक है...जी लगाकर काम करना," मैंने कहा, ''बस दो ही तो प्राणी हैं। जो करना है तुझे ही करना है। बस इसी तरह...''

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