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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


निताई ने ठहाका लगाते हुए कहा, ''आपको कहना न होगा चाची....भैया और

भाभी जी तो कभी भूलकर भी नहीं देखते। जो करता हूँ मैं ही करता हूँ।''

मुझे सन्तोष हुआ।

उधर शीला का सुरीला संवाद सुनने को मिलता रहता था, ''मैं तो आपको दोनों बेला प्रणाम करती रहती हूँ मौसी! काम करने का सलीका हो तो ऐसा। मुझे तो अपनी गृहस्थी की तरफ नजर उठाकर देखने की जरूरत तक नहीं पड़ती। निताई ही सौदा-सुलुफ ले आता है, बाजार जाता है...आज खाने में क्या बनेगा...सब उसी के जिम्मे रहता है...''

मैं यही सोचती रही कि चलो कहीं तो कोई फर्क पड़ा। लोगों के लिए नौकर या रसोइये जुटा देना अथवा किसी के ब्याह के लिए कहीं कोई जुगाड़ भिड़ा देना तो आये दिन लगा ही रहता है लेकिन अब तक कहीं से किसी का धन्यवाद नसीब नहीं हुआ था। शिकायतें और उलाहने ही मिलते रहे हैं अब तक उपहार में। निताई की सादगी उसकी मजबूरी और थोड़े में ही खुश हो जाने की तैयारी ने मेरी इज्जत रख ली है। निताई तो ऐसा ही था...लेकिन ऐसा रह नहीं पाया।

और मैं उसी बात पर आती हूँ।

आज दोपहर को...जब मैं खा-पीकर हाथ में कहानी की एक किताब लेकर पढ़ रही थी और लगा कि नींद आ रही थी...अचानक...मैंने देखा कि निताई अपने हाथ में अपनी वही पुरानी पोटली लेकर मेरे सामने आ खड़ा हुआ है।

''क्या बात है निताई...कैसे हो...?'' मैंने पूछा।

निताई की भोली-भाली सूरत और सहमी-सहमी आँखों में जैसे चिनगारियाँ फूट रही थीं। सिर झुकाकर खड़ा रहने और अँगूठे से जमीन कुरेदने वाली चिर-परिचित मुद्रा से अलग-थलग जान पडनेवाला निताई आज एकदम सीधा खड़ा रहा।

''क्या हुआ? सारे कपड़े-लत्ते लेकर चले आये तुम?''

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