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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


मैं मन-ही-मन मुस्करा रही थी। दरअसल बड़े लोगों की तकलीफें भी कुछ ज्यादा ही बड़ी होती हैं। ऐसा न होता तो उसकी गृहस्थी में हैं ही कितने लोग...सिर्फ दो जने। खुद वह और उसका पति...बस। कोई बाल-बच्चा नहीं। लेकिन सुबह...दोपहर...शाम तीनों बेला कोई नौकर सामने न दीख पड़े तो आँखों के सामने अँधेरा-सा छा जाता है। हालाँकि वह चाहे तो डिफ्रिजेडर के भले के लिए ही सही एक दिन सौदा-सुलुफ करके पूरे सप्ताह भर आराम कर सकती है। एक दिन खाना पकाकर दो-तीन दिनों तक खा सकती है।...खाना थोड़ा गरम ही तो करना होगा।

''मैं उसे खाना पकाना सिखा दूँगी...चाची।'' कुछ दिनों के बाद शीला की भारी-भरकम आवाज टेलीफोन के तार को झनझनाती गूँज पड़ी। ''आपने तो बहुत ही बढ़िया आदमी भेज दिया है चाची...। जरा-सा ना-नुकुर नहीं...बेचारा बक दो...झक दो...चुप रहता है। वैसे इसकी जरूरत ही नहीं पड़ती। इसके पहले वाला तो बड़ा ही शैतान था।...बास्टर्ड...''

बीच-बीच में शीला का फोन आता रहता। शीला वैसे एक आधुनिका नारी है। कहना चाहिए जरूरत से ज्यादा आधुनिका है।

...और इस तरह के आधुनिक समाज में वह एकबारगी सबसे आगे दीख पड़ने की योग्यता भी रखती है। लेकिन माँ और मौसियों के मामले में उसका कुछ दूसरा ही नजरिया रहा है। वहाँ शीला का व्यक्तित्व उसे दूसरों से एकदम अलग कर देता था। अपने पिछले नौकरों के बारे में उसने जिन-जिन विशेषणों का हवाला दिया उसे टेलीफोन के इस सिरे पर सुननेवाले मेरे कान एकदम दिप उठते थे।

गनीमत यह थी कि ईश्वर की कृपा से मैंने जिस आदमी को उसके पास भेजा था, उससे शीला खुश थी।

नितार्ड भी कम खुश नहीं था।

दो दिनों बाद ही वह मिलने आया था मुझसे। उसकी देह पर हवाई शर्ट और गाढ़े का पायजामा था। हजामत बनी हुई थी और सफाचट चेहरे पर मुस्कान खेल रही थी।

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