कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
|
5 पाठकों को प्रिय 3465 पाठक हैं |
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
और
तभी...एक नौकरी की खबर मिली थी। घर की चाकरी ही थी। टेलीफोन पर एक सहेली
की बेटी ने बताया, ''एक नौकर चाहिए मौसी....मिल जाएगा। नौकरानी
नहीं...नौकर। जीना दूभर हो गया है...'' और कहते-कहते उसका गला रुँध गया था।
निताई
पास ही खड़ा था और मैंने रिसीवर पर जो कुछ कहा, वह सुन रहा था। मेरे रिसीवर
रखने पर उसने छूटते ही कहा, ''ठीक है चाची....मुझे भेज दीजिए।''
मैंने
आनाकानी की थीं। कहा, ''देख निताई, ऐसा है कि उन्हें एक नौकर की जरूरत है।
मोटा-मोटा काम करना पड़ेगा। वे तुम्हें जूते झाडूने को कहेंगे....गन्दे
कपड़े साफ करने...''
निताई ने गर्दन झुकाकर
कहा था, ''सो तो कहेंगे ही चाची...मैं तो यह सब जान-बूझकर ही स्वीकार कर
रहा हूँ।''
''देखो बेटे...ऐसा न हो
कि अपने मान-सम्मान की बात तुम्हें छू जाए और तुम दुखी हो जाओ। समझ गये
न...?''
मैंनै
देखा कि निताई अपनी बात पर अड़ा है। उसने दृढ़ता से कहा, ''अरे नहीं
चाची...जब स्वीकार कर लिया तो पीछे क्यों हटने लगा भला? मुझे पता है जूठे
बर्तन भी उठाने पड़ेंगे, जूते चमकाने होंगे...सब करूँगा। दूसरे के गले पड़े
रहने से यह काम कहीं कम ही अपमानजनक होगा...है न?''
मैं कुछ कह नहीं
सकी...क्या कहती भला?
अपनी
सहेली की बेटी के अनुरोध की रक्षा कर पाने की खुशी के साथ एक आदमी को
खामखाह बिठाकर खिलाने के दायित्व से मुक्ति भी मिली। अपनी छोटी-मोटी पोटली
में दौ-एक कपड़े समेटकर उसने मुझसे वह पर्ची ले ली, जिस पर घर का नाम-पता
लिखा था और काँकुलिया की तरफ रवाना हो गया।
थोड़ी
देर के बाद ही मेरी सहेली की बेटी ने अपनी हँसी-खुशी का इजहार करते हुए
टेलीफोन पर मुझे धन्यवाद दिया। बोली, ''मैं आपका उपकार कैसे भूल सकती हूँ
मौसी...। मैं ही जानती हूँ कि मैं कितनी परेशान थी...।''
|