कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
अगर
मैं उसकी सगी चाची रही होती तो उसकी बातों पर अवश्य ही शर्मिन्दा होती।
लेकिन बात कुछ दूसरी ही थी। अपने गाँव-जवार का होने के नाते और पड़ोसी होने
की सुविधा के चलते यह दरिद्र ब्राह्मण-सन्तान इस घर के मालिक को शुरू से
ही चाचा और मुझे चाची कहता आया है। और तभी से एक नौकरी का जुगाड़ कर देने
का विनम्र अनुरोध करता रहा है। उसे तो कुछ ऐसा ही जान पड़ता है कि कलकत्ता
महानगर एक कल्पवृक्ष है और उसमें नौकरी रूपी हजारों-लाखों पके और मीठे फल
लटके हुए हैं...बस हाथ बढ़ाने की जरूरत है। और जो लोग इतनी ढेर सारी
किताबें लिखते हैं उनके लिए किसी छापाखाने में एक नौकरी का बन्दोवस्त करवा
देना कौन-सी मुश्किल बात है? लेकिन यह काम मुश्किल ही नहीं....नामुमकिन
है...? यह उसकी समझ सं परे है।
लेकिन किया क्या जा सकता
है?
किताबें
लिख मारनेवाले लेखकों की साख और धाक कितनी होती है, इसे लेखक अच्छी तरह
जानते हैं। अगर ऐसी कोई मजबूरी न होती तो उसके लिए नौकरी का जुगाड़ कर
देना तो बहुत कुछ मेरे ही हक में होता।
अपने
ही गाँव-जवार के और एक पड़ोसी होने के नाते इस छोकरे ने पिछले एक महीने से
यहाँ खेमा डाला हुआ है। ऐसा भी नहीं जान पड़ता कि नौकरी न मिली तो वह अपने
गाँव लौट जाएगा। इसलिए उसे नौकरी दिलाने की कोशिश में मैंने कोई कोताही
नहीं की। लेकिन नौकरी की गुंजाइश भी तो हो कहीं? दुखिया ब्राह्मण-घर की
औरतों और मर्दों का काम है दूसरे के घरों का खाना पकाना और इसी में वे
सन्तोष कर लेते हैं। नानी के घर में ही वह पला-बढ़ा है। मामा और मामियाँ भी
हैं लेकिन वैसे रसोईघर में क्या कुछ पकता रहता है, कभी मुड़कर नहीं देखा
होगा उसने। हमारा निताई भी इसी में राजी था।
तो फिर?
तभी
तो उसने यह तय किया है कि जनेऊ उतार दूँगा....और क्या? ''कहूँगा कि निचली
जात का लड़का हूँ। जब नौकरी ही करनी है तो इन सारी बातों का रोना-गाना
कैसा...? जवानी तो ऐसे ही बीत चली....।''
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