उपन्यास >> बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाब बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाबप्रदीप श्रीवास्तव
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प्रदीप जी का नवीन उपन्यास
कई दिन की चख-चख के बाद पुलिस ने मामला रफा-दफा कराया। मगर झगड़े की सारी जड़ें घर में मौजूद थीं, तो वह चलता रहा। फिर वह दिन भी आया जब जिन दो अम्मियों को अब्बू लाए थे झूठ ही झूठ बोल कर, जिनके लिए मेरी अम्मी को भयानक यातनाएं देते थे, परेशान करते थे, साथ ही उन दोनों को भी मारते थे, मेरी उन दोनों अम्मियों को भी तलाक दे दिया। घर से निकाल दिया। बच्चों को भी उन्हीं के हवाले कर दिया।
तब अम्मी ने एक बार फिर अपने जीवन से अब्बू को निकालने का पुरजोर प्रयास किया। लेकिन अब्बू ने मेरी अम्मी को तलाक नहीं दिया। बार-बार मांगने, भीषण फसाद होने पर भी नहीं दिया। घर पर जमे रहे। मगर सौतेली अम्मियों के जाने के बाद झगड़े-फसाद कुछ कम हुए। समय के साथ और कम होते गए। इसी बीच एक दिन पता चला कि बड़ी अम्मी को उनके मायके वालों ने भी डेढ़ महीने बाद ही घर से निकाल दिया था।
कहने को कई भाई, मां-बाप सभी थे। उसके बाद उनका, उनके बच्चों का आज-तक कुछ पता नहीं चला। पता नहीं जीवित भी हैं या नहीं। यदि नहीं हैं तो उनकी मौत का जिम्मेदार किसे कहूँ? केवल अब्बू को, या अम्मी-अब्बू दोनों को। मकान अम्मी का था, वह चाहतीं तो रोक सकती थीं। यदि जीवित हैं तो उनकी तकलीफों का जिम्मेदार कौन?'
बेनज़ीर यह कहते हुए बहुत गंभीर हो गईं। अतीत में बहुत गहरे उतर गईं तो मैं भी शांति से उन्हें देखता रहा। थोड़ी ही देर में वह जैसे जागीं, मुझ पर एक नज़र डाली, फिर हलके से मुस्कुराती हुईं बोलीं, 'जल्दी ही अम्मी, अब्बू के बीच रिश्ते सामान्य हो गए और हम भाई-बहनों की संख्या कुल सात पर जाकर रुकी। मैं उनकी सबसे छोटी संतान हूँ। इसलिए मैं ही घर में अम्मी-अब्बू के साथ आखिर तक रही। बाकी तीन भाई, तीन बहनें अपने-अपने परिवार के साथ अपने घरों को चले गए। कोई दे या ना दे, अम्मी-अब्बू भले ही बड़ी वाली दोनों बहनों को रात-दिन कोसते रहे, लेकिन मैं कहूँगी कि उन बहनों के कारण घर जंग के मैदान से शांति का मैदान या घर बना। नहीं तो अम्मियों के जाने के बाद हम बच्चों के कारण घर में हरदम धूम-धड़ाम होता रहता था। बहनों ने किया बस इतना कि अब्बू की बेइंतिहा पाबंदियों, हद दर्जे की पर्देदारी के खिलाफ आवाज उठाई और खुली हवा में साँस लेने के लिए अब्बू के बनाए सारे बाड़ों को तोड़कर बिखरा दिया।
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