उपन्यास >> बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाब बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाबप्रदीप श्रीवास्तव
|
0 |
प्रदीप जी का नवीन उपन्यास
इस तरह बड़ी अम्मी घर से हमेशा के लिए चली गईं। अम्मी अंदर आकर अपने बिस्तर पर बैठ गईं। बड़ी अम्मी की बातें दोहरा-दोहरा कर बार-बार रोती और चुप होती रहीं। हम सभी बच्चे डरे-सहमे इधर-उधर कोनों में दुबके हुए थे। देखते-देखते नौ बज गए, लेकिन चाय तक नहीं बनी थी।
अब्बू नौ बजे उठे। उनके उठने की आहट से हम सब एकदम सिहर उठे। उठते ही उन्होंने बाहर जाकर देखा कि बड़ी अम्मी तो नहीं हैं। उन्हें बाहर अंदर कहीं भी ना देखकर कहा, 'खुदा का शुक्र है शैतान की खाला से निजात मिली।' फिर अम्मी से बोले, 'तू भी रास्ते पर आ जा तो अच्छा है। जो कहता हूँ वो कर नहीं तो तेरा हश्र और भी बुरा होगा।'
पहले से ही खफा अम्मी का गुस्सा अब सातवें आसमान पर पहुँच गया। उन्होंने छूटते ही बड़ी अम्मी का नाम लेते हुए कहा, 'कान खोल कर सुन लो, मैं वह नहीं हूँ और ना ही वह शैतान की खाला थीं और ना मैं हूँ। शैतान कौन है कहने की जरूरत नहीं। मैं तो कहती हूँ कि पलक झपकने की भी देर ना करो, अभी का अभी मुझे तलाक दो और जाओ यहाँ से, पीछा छोड़ो मेरा, छोड़ो मेरा पीछा। मुझे कोई जरूरत नहीं है तुम्हारी। इस मुगालते में न रहो कि तुम्हारे बिना मैं जी ना पाऊँगी, अपने बच्चों को जिला ना पाऊँगी।'
इन्हीं बातों के साथ अब्बू-अम्मी के बीच जोरदार झगड़े का एक और दौर सुबह-सुबह ही शुरू हो गया। पड़ोसियों की आँख उस कड़कड़ाती ठंड में हमारे घर की चीख-चिल्लाहट से खुली। यह चीख-चिल्लाहट और भी भयानक होने लगी, जब एक दिन अचानक ही अब्बू दूसरी तीसरी अम्मी को लेकर आ धमके और फिर लगातार कई दिन तक बवाल चलता रहा।
मेरी यह दोनों ही सौतेली अम्मियाँ आपस में ममेरी बहनें थीं और तलाकशुदा भी। लेकिन अब्बू निकाह करके ले आए। हफ्ते भर के अंदर दोनों से निकाह किया था। दोनों ही बेहद गरीबी और मुफलिसी में जीवन जी रही थीं। बाद में पता चला कि अब्बू ने वहाँ भी झूठ-फरेब का सहारा लिया था। दोनों ही जगह अलग-अलग बातें की थीं। जैसे-जैसे उनके झूठ सामने आते गए वैसे-वैसे झगड़े बढ़ते गए। फिर एक दिन खूब मारपीट हुई और बात पुलिस तक पहुँच गई। मेरी अम्मी सहित दोनों सौतेली अम्मियों को भी चोटें आई थीं।
|