उपन्यास >> बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाब बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाबप्रदीप श्रीवास्तव
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प्रदीप जी का नवीन उपन्यास
हम पर पाबंदियों की इतनी तहें या पाबंदियाँ इतने स्तर की थीं कि जेड प्लस सिक्योरिटी पाए लोगों की सुरक्षा भी उतने स्तर की नहीं होगी। आलम यह था कि घर के छोटे से आँगन में भी हम बिना सिर ढके नहीं रह सकते थे। सूरज की रोशनी भी हमें छू ले, देख ले, यह भी अब्बू को गवारा नहीं था। पाबंदियाँ आयद करने की उनकी ताकत को दोनों बहनों ने कतरा-कतरा कर बिखेर दिया था। इसके बावजूद वह अपनी कोशिश करते रहते थे।
हम सारे बच्चे टीवी देखने के लिए तरस गए, मोबाइल क्या होता है यह हम केवल सुनते थे। पढ़ने-लिखने से हमारा सामना इतना ही रहा कि एक खातून को अब्बू ने उर्दू पढ़ानें के लिए रखा था। वही आकर हम बहनों को लिखने-पढ़ने लायक उर्दू पढ़ा-सिखा सकीं।
खातून उर्दू भाषा, कुरान की अच्छी जानकार होने के साथ-साथ उर्दू साहित्य की भी अच्छी जानकार थीं। फिराक गोरखपुरी, इस्मत चुगताई, कुर्तउलएन हैदर उनके प्रिय लेखक-लेखिकाएं थीं। वह चाहती थीं कि हम बहनों को ठीक से पढ़ाई-लिखाई में आगे बढ़ाया जाए। हमारा दाखिला स्कूल में करा दिया जाए। वह अब्बू से बार-बार कहतीं कि, 'आपकी बच्चियाँ पढ़ने में तेज हैं, उन्हें अच्छी तालीम दीजिए।' मगर अब्बू की नजरों में यह गलत था। भाइयों को तो उन्होंने मदरसों में डाल रखा था। मगर हमारे लिए मदरसा जाने पर भी उनको सख्त ऐतराज था।
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