उपन्यास >> बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाब बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाबप्रदीप श्रीवास्तव
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प्रदीप जी का नवीन उपन्यास
मैंने छूटते ही कहा, 'बेनज़ीर जी मैं गौर से देख नहीं रहा हूँ। बल्कि आप जो दास्तान बता रही हैं, उसकी गहराई में उतरकर, उसे आत्मसात करने की कोशिश कर रहा हूँ। जिससे मैं उपन्यास में प्राण-प्रतिष्ठा कर, उसे जीवन्त बनाने में सफल रहूँ। वरना आपकी-हमारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा।'
'ठीक है, उतरिए आप गहराई में। ये लेखन की बातें आप लेखक ही जानें। लेकिन जब आप देखते हैं, तो मुझे लगता है कि जैसे आपकी आँखें जादू करके वह सब भी जान लेना चाहती हैं, जो मैंने आज तक किसी को नहीं बताया और बताना भी नहीं चाहती।' यह कहकर वह पुनः हँस दीं। फिर अतीत में डूबती हुई सी बोलीं, 'उनकी हालत पर तरस खा कर मोहल्ले के लोगों ने कंबल, खाने-पीने की चीजें तो दीं, लेकिन अब्बू की हरकतों के कारण किसी ने उन्हें अपने घर में शरण नहीं दी। मेरी अम्मी से नहीं रहा गया, तो जब अब्बू सो गए तो चुपचाप बड़ी अम्मी को समझा-बुझाकर घर के अंदर ले आईं कि, 'रात यहीं बिताओ। इतनी ठंड में बाहर तुम पर जान पर बन आएगी। जो भी हो मैं अपनी इंसानियत का फर्ज निभाने की कोशिश करुँगी। सवेरे तुम चली जाना अपने घर, क्योंकि हम दोनों की भलाई इसी में है। बड़ी अम्मी बड़ी मान-मनौवल के बाद अंदर आईं। लेकिन लाख मिन्नतों के बाद भी खाने-पीने का एक निवाला भी मंजूर नहीं किया। बच्चों ने भी नहीं।
दिन भर से घर में जो हंगामा बरपाया था अब्बू ने उससे घर में चूल्हा नहीं जला था। अब्बू बाहर से खाकर आए और तानकर सो गए थे। वह जब सुबह उठे तब-तक बड़ी अम्मी अपने बच्चों के साथ अपने मायके चली गईं थीं। कोई उन्हें देख ना ले, मोहल्ले के लोगों के सामने उन्हें शर्मिंदा ना होना पड़े, इसलिए कड़ाके की ठंड, घना कोहरा और अम्मी के बार-बार कहने के बावजूद सवेरा होने से कुछ ही पहले वह चली गईं। तब सड़क पर अंधेरा ही था। इक्का-दुक्का गाड़ियाँ दिख रही थीं। अम्मी ने उनसे जाते वक्त अपनी हर गलती के लिए माफी मांगते हुए, जरूरत भर के पैसे देने चाहे लेकिन उन्होंने नहीं लिये।
अम्मी ने कहा कम से कम किराए भर के तो रख लो। तब उन्होंने पैरों से पायल उतारकर अम्मी को देते हुए कहा, 'इनके बदले दोगी तभी लूंगी, नहीं तो नहीं।' अम्मी की सारी कोशिशें बेकार गईं। पायल उन्हें लेनी ही पड़ी। वह जाते समय रो रही थीं। मगर आँखों में गुस्सा चेहरे पर कठोरता साफ दिख रही थी।
वह दूर तक एकदम सीधी चली जाती सड़क पर अपने बच्चों को लिए चली गईं जल्दी-जल्दी। हम दरवाजे पर खड़े उन्हें देखते रहे, मगर वह ज्यादा दूर तक दिखाई नहीं दीं। बमुश्किल पचास-साठ कदम चली होंगी कि कोहरे में ओझल हो गईं। उनके ओझल होने के बाद भी अम्मी बड़ी देर तक बाहर ही खड़ी रहीं। बड़ी अम्मी ने जाते वक्त अम्मी को नसीहत दी थी कि, 'जो भी हो जाए इस जल्लाद के नाम मकान मत लिखना। अपने हाथ कभी ना कटाना, नहीं तो यह जल्लाद तुम्हारी मुझसे भी बुरी हालत करेगा।'
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