उपन्यास >> बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाब बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाबप्रदीप श्रीवास्तव
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प्रदीप जी का नवीन उपन्यास
वह मकान हमारे नाना ने हमारी अम्मी के नाम कर दिया था। बकायदा उनके नाम रजिस्ट्री भी की थी। जब नाना-नानी इंतकाल हुआ, तब मकान ज्यादा बड़ा नहीं था। अम्मी कई भाई-बहनों की अकाल मृत्यु के बाद अकेली ही बची थीं। नाना-नानी उनका निकाह जल्द से जल्द करके अपनी तरफ से निश्चिंत हो जाना चाहते थे।
नाना ने चौदह साल की उम्र में ही अम्मी के निकाह की तैयारी शुरू कर दी थी। लेकिन टीवी की बीमारी ने अचानक ही नाना को छीन लिया। तब मकान में तीन कमरे ही हुआ करते थे। नाना के साथ ही इनकम के सारे रास्ते भी बंद हो गए तो नानी, अम्मी को खाने-पीने के लाले पड़ गए। आखिर नानी ने एक कमरे में अपनी सारी गृहस्थी समेटी और दो कमरे किराए पर दे दिए। इससे दोनों को दो जून की रोटी का इंतजाम हो गया। नानी चार बच्चों और फिर पति की मौत के गम से बुरी तरह टूटतीं जा रही थीं।
लेकिन रोटी से ज्यादा चिंता उन्हें बेटी यानी अम्मी के निकाह की थी। लाख कोशिश उन्होंने कर डाली लेकिन नानी अम्मी का निकाह नहीं कर पाईं। तीन साल निकल गए। एक जगह तो निकाह के ऐन बारात आने वाले दिन ही रिश्ता टूट गया। नानी चार बच्चों और पति की मौत का गम तो सह ले रही थीं, लेकिन इससे उनको इतना सदमा लगा कि कुछ ही महीनों में चल बसीं
अम्मी बताती थीं कि नानी के इंतकाल से वह गहरे सदमे में आ गईं। कैसे जिएं, क्या करें उन्हें कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। मगर जीवन जीने का जज्बा बना रहा तो उन्होंने उनके निकाह के लिए जो गहने थे उसे बेच दिया। उससे मिले पैसे और निकाह के लिए जो पैसे थे वह सब मिलाकर, खींचतान कर तीन कमरे और बनवाए जिससे कि और किराएदार रख सकें। इनकम को और बढ़ाया जा सके। साथ ही वह अपनी चिकनकारी के हुनर का भी इस्तेमाल करने लगीं। लखनऊ में चौक के पास एक दुकान से कपड़े ले आतीं और कढ़ाई करके दे आतीं। उनका यही क्रम चल निकला।
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