उपन्यास >> बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाब बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाबप्रदीप श्रीवास्तव
|
0 |
प्रदीप जी का नवीन उपन्यास
वो क्या कहते हैं कि साठ के बाद सठिया जाते हैं और वह लोग तो पैंसठ से ऊपर हो रहे थे। असल में अम्मी-अब्बू दोनों शुरू से ही ऐसे ही थे। कम से कम अपनी याददाश्त में बचपन से उन्हें ऐसे ही देखती आ रही थी। हाँ, दस-बारह साल पहले तक अम्मी के साथ यह समस्या नहीं थी। तब दोनों छोटी अम्मी साथ रहती थीं। अब्बू से अम्मी का छत्तीस नहीं बहत्तर का आँकड़ा रहता था। महीनों हो जाता था, वह एक दूसरे को देखते भी नहीं थे। अम्मी उनकी आहट मिलते ही अपने कमरे में खुद को छिपा लेती थीं कि, कहीं अब्बू से सामना ना हो जाए। क्योंकि अब्बू सामना होने पर कुछ ना कुछ तीखा जरूर बोलते थे और अम्मी अपना आपा खो बैठती थीं। सारी लानत-मलामत उन पर भेजती हुई चीखती-चिल्लाती धरती आसमान एक कर देती थीं। और तब अब्बू की तरफ से दोनों छोटी अम्मियाँ भी मैदान में कूद पड़ती थीं। मगर अम्मी की आक्रामकता के आगे वह दोनों कमजोर पड़ जाती थीं। उन्हें अपने कमरों में दुबक जाना पड़ता था। कई बार तो अम्मी के हाथ उस समय जो भी सामान लग जाता उसी से उन दोनों अम्मियों को मारने के लिए दौड़ पड़तीं थीं।
एक बार तो तीसरी वाली अम्मी को चाय वाली भगोनियाँ जिसमें हैंडल लगा हुआ था, उसी से मार-मार कर लहूलुहान कर दिया था। बीच वाली आईं तीसरी वाली को बचाने तो वह भी बुरी तरह मार खा गईं। उनकी गोद से उनकी साल भर की बच्ची यानी मेरी सौतेली बहन गिरते-गिरते बची। यह तो अल्लाह का करम था कि ऐन वक्त पर आकर अब्बू ने दोनों को बचा लिया था, नहीं तो इनमें से किसी की जान भी जा सकती थी।
दूसरी वाली फिर भी बेहोश हो गई थीं। तब वह करीब तीन महीने की गर्भवती थीं। उनकी वह तीसरी संतान थी। मुझे आज भी पूरा विश्वास है कि, तब अब्बू भी अम्मी की आक्रामकता से डरते थे, क्योंकि मेरी सौतेली अम्मियों पर आए दिन हाथ उठाने वाले अब्बू मेरी अम्मी पर किच-किचा कर रह जाते थे, लेकिन उन पर हाथ नहीं उठाते थे।
कई बार तो मैंने साफ-साफ देखा कि वह उठा हुआ हाथ भी वापस खींच लेते थे। अम्मी से इतना दबने का या उनसे डरने का मैं जो एकमात्र कारण मानती हूँ वह यह कि, अम्मी मकान की मालकिन थीं। यही एकमात्र कारण था जिससे अब्बू अम्मी के ऊपर उस तरह हावी नहीं होते थे, जिस तरह बाकी तीन अम्मियों पर होते थे।
|