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बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाब

प्रदीप श्रीवास्तव

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16913
आईएसबीएन :9781613017227

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प्रदीप जी का नवीन उपन्यास

जब वह मुखातिब हुईं तो कई बार मुझे बेहद कूपमंडूक लगीं, तो कई बार इतनी बिंदास कि उनके साहस को सैल्यूट करना पड़ा। यह बात आप बिल्कुल ना कहें कि कोई या तो कूपमंडूक हो सकता है या फिर बिंदास। दोनों एक साथ नहीं। लेकिन मेरा दावा है कि बेनज़ीर के बारे में पूरी बातें जानकर आप मेरी बात से पूर्णत: सहमत हो जाएंगे। उन्होंने अपने जीवन में आगे बढ़ने के लिए जहाँ अपने नजदीक खींची गईं दिवारों को एकदम तोड़कर गिरा दिया, समतल कर दिया या फिर उसे लांघ गईं, वहीं वह अपने लिए अपने हिसाब की बाऊंड्री बना भी लेती हैं या फिर बिना बाऊंड्री के ही अपनी दुनिया बनाती हैं।

लम्बे समय के बाद जब उन्होंने मन से सहयोग शुरू किया तो यह उपन्यास आकार लेने लगा। शहद सी मीठी आवाज में अपनी बहुत ही हृदयस्पर्शी बातें उन्होंने बतानी प्रारम्भ कीं। अपने खूबसूरत हैंगिंग गार्डेन में, जब पहली बैठक में उन्होंने चर्चा शुरू की थी तो सर्दी का मौसम छोड़ कर जा रहा था। रविवार का दिन था। हरी घास पर बैंत की स्टाइलिश चार कुर्सियाँ पड़ीं थीं। उसी में से एक पर वह बैठी थीं, सामने वाली पर मैं। बीच में शीशे की टेबल थी, जिस पर मैंने अपने दो मोबाइल रखे थे बातचीत रिकॉर्ड करने के लिए। बेनज़ीर ने हल्के नीले रंग की सलवार और गुलाबी कुर्ता पहना हुआ था। ड्रेस की कटिंग और डिजाइन बहुत फैंसी और बोल्ड थी। मैंने जींस और डेनिम शर्ट पहनी थी।

वहाँ पहुँचने से पहले मैंने खुद को अच्छे ढंग से तैयार किया था। एक काफी महंगा विदेशी सेंट भी लगाया था। बात की शुरुआत में उन्होंने कहा, 'आखिर आप अपनी जिद पूरी कर ही ले रहे हैं। मेरे जीवन पर किताब भी लिखी जा सकती है, कभी सोचा भी नहीं था। खैर आपने कहा कि जो कुछ बचपन से अबतक याद है वो बता दूं। याद तो मुझे इतना है कि शुरू कहाँ से करूं, यह मुझे बहुत समय तक सोचना पड़ा।

क्या है कि मैं अपनी कोई भी बात अम्मी-अब्बू को पता नहीं ठीक से समझा नहीं पाती थी या फिर वो लोग ऐसे थे कि समझ नहीं पाते थे। उन्हें छोटी सी छोटी बात समझाना मेरे लिए नाकों-चने चबाने से कम नहीं होता था। जबकि उनके अलावा घर या बाहर कहीं भी मुझे अपनी बात कहने या किसी को भी कन्वींस करने में ज्यादा दिक्कत नहीं होती। उनकी पिछली बातों को ध्यान में रखते हुए, यह भी नहीं कह सकती कि मैंने जब उन्हें कुछ कहने-सुनने समझाने की कोशिश शुरू की थी, तबतक उन दोनों की उम्र हो गई थी। इसलिए उन्हें कुछ भी समझाना आसान नहीं था।

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