उपन्यास >> बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाब बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाबप्रदीप श्रीवास्तव
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प्रदीप जी का नवीन उपन्यास
मगर मेरा गुनाह क्या है? मैं जीवन की सबसे बेहतरीन खुशी के एहसास से महरूम क्यों हूँ? और यदि इन अहसासात से महरूम ही रखना है, तो जरूरत ही क्या थी ज़ाहिदा से भी खूबसूरत तन-मन देने की। ज़ाहिदा से खुद का मिलान, रियाज़ के साथ अजीब से खयालों में खोना, जैसे कि ज़ाहिदा की जगह खुद को उसके आगोश में खोते देखना और फिर काम, मतलब कि चिकनकारी का पीछे-पीछे, काफी पीछे छूटते जाना, परिणाम यह हुआ कि जल्दी ही घर की माली हालत और भी बुरी हालत में जा खड़ी हुई।'
इतना कह कर बेनज़ीर अचानक ही चुप हो मुझे देखती हुई बोलीं, 'एक बात बताइए, जब मैं अपनी बात कहने लगती हूँ, तो आप एक स्टेच्यू की तरह मुझे इतना गौर से क्यों देखने लगते हैं? ऐसा क्या है मेरे इस चेहरे पर कि आप स्टेच्यू बन जाते हैं।'
मेरे जेहन में कहीं अहसास था इस बात का कि, वो ऐसा पूछेंगी, लेकिन कोई जवाब मैंने तैयार नहीं किया था। परन्तु प्रश्न आते ही तीर सा जवाब निकल गया कि, 'मैं आपकी अतिशय ईमानदारी, किसी मर्द से भी बढ़ कर साहस से अभिभूत हूँ। इतना कि स्टेच्यू कब बन जाता हूँ, इसका पता तब चलता है जब आप टोकती हैं। आप जानती हैं कि आप जो बता रही हैं, वह सब इतनी बेबाकी से बताने की हिम्मत बड़े-बड़े हिम्मती, ईमानदार, साहसी भी नहीं कर पाते हैं। खैर मैं ज्यादा बोलकर आपकी कंटीन्यूटी ब्रेक नहीं करना चाहता। इसलिए प्लीज आप आगे बताइये।'
बेनज़ीर हल्की मुस्कान लिए बोलीं, 'और आप फिर से स्टेच्यू बन गए तो।'
'मैं पूरा प्रयास करूँगा कि ऐसा ना हो।'
'ठीक है। तो जब काम पीछे छूटने लगा तो कई ऑर्डर भी हाथ से फिसल गए। अम्मी की दवा का खर्च बढ़ता जा रहा था। मुझे लगा कि चिकन से ज्यादा दुकान पर ध्यान दूं तो अच्छा है। वैसे भी अम्मी से नहीं हो पा रहा है। मैं यही करने लगी, पर अम्मी दिल से यह कत्तई नहीं चाहती थीं। लेकिन हालात ने उन्हें अपने कदम पीछे करने के लिए मजबूर कर दिया।
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