उपन्यास >> बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाब बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाबप्रदीप श्रीवास्तव
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प्रदीप जी का नवीन उपन्यास
'नहीं, समझ तो पहले से ही रही थी। काफी पहले से। देख पहली बार रही थी। वह महज इत्तेफाक ही था। नहीं तो ऐसा भी वाकिया होगा, यह कभी सोचा भी नहीं था। और कभी ख्वाबों में भी यह नहीं सोचा था कि, किसी को बताऊँगी भी, वह भी इस तरह ...।'
'हस्बैंड को भी नहीं बताएंगी, क्या यह भी नहीं सोचा था।'
'हाँ, बिल्कुल नहीं सोचा था कि, कभी हसबैंड को भी बताऊँगी। उनके बाद आप दूसरे व्यक्ति हैं जिसे यह सब बताया।'
मैं उनकी बातें सुन रहा था और रह-रह कर मेरे दिमाग में बरसों पहले खुशवंत सिंह की पढी आत्मकथा ''सच प्यार और थोड़ी सी शरारत'' घूम रही थी। मैं सोच रहा था कि, यह जिस तरह, जिस-जिस तरह की बातें बता रही हैं, यह सब उपन्यास के बजाय यदि आत्मकथा के रूप में आतीं, तो निश्चित ही यह खुशवंत सिंह की आत्मकथा से भी ज्यादा ईमानदार आत्मकथा होती। लेकिन इनका डर इन्हें इसकी इजाजत नहीं दे रहा है। बात आगे बढ़ाते हुए मैंने पूछा, 'हस्बेंड के बाद आप अपनी नितांत व्यक्तिगत बातें मुझे ही क्यों बताने लगीं?'
यह सुनकर वह कुछ देर मुझे देखती, कुछ सोचती रहीं फिर मेरे प्रश्न को अपनी हंसी में विलोपित करती हुई बोलीं, 'मैं आपको कुछ बता नहीं रही, आपकी मोनालिशा सी रहस्य्मयी मुस्कान, भेद-भरी चितवन सारी बातें जान ले रही है।'
'न कहने का आपका अंदाज, आप ही की तरह बहुत खूबसूरत है। इस प्वाइंट पर आगे बातें होंगी। अभी तो यह बताइए कि, जब रात इतनी हंगामाखेज थी तो आपका दिन कैसा बीता।'
'बताया ना, जी-तोड़ मेहनत करते हुए। इतना कि अम्मी बोलीं, 'अपनी उंगलिओं पर थोड़ा रहम कर। दो घड़ी, थोड़ा ठहर कर सुस्ता ले।' लेकिन मुझे चैन नहीं था। मन ही मन अम्मी को कहती कि, 'उंगलिओं पर रहम करुँगी, तो रात भर क्या किया? तेरे इस प्रश्न का मैं क्या जवाब दूंगी। अम्मी कहीं मेरी चोरी ना पकड़ लें, इस डर से मैं दिन भर भीतर ही भीतर डरती जी-जान से काम में जुटी रही। बीच-बीच में अजीब सी सिहरन से कांप उठती। दुकान भी थोड़ी-थोड़ी देर में देखती रही। लेकिन जब रात हुई तो फिर वही अफसाना, वही रियाज़, वही ज़ाहिदा और उनकी मोहब्बत भरी दुनिया का गवाह वह कमरा और उनकी चोर गवाह मैं। उनकी दुनिया देख-देख कर ऐसी-ऐसी बातें मन में उठतीं कि, अगले दिन सोच-सोच कर मैं खुद हैरान होती कि, या अल्लाह यह मुझे क्या हो रहा है। यदि किसी की मोहब्बत से लबरेज दुनिया देखना गुनाह है, तो या मेरे परवरदिगार, मुझे मेरे इस गुनाह के लिए बख्श देना।
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