उपन्यास >> बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाब बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाबप्रदीप श्रीवास्तव
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प्रदीप जी का नवीन उपन्यास
वह रात-दिन एक ही जुगत में लगी रहतीं। उठते-बैठते यही बात कहतीं कि, 'जैसे भी हो, निकाह भर का पैसा इकट्ठा हो जाए तो, कोई भला सा लड़का देखकर तेरा निकाह कर दूं, तो मेरे दिल को सुकून मिल जाए। फिर मैं राजी-खुशी इस दुनिया से रुखसत होऊं। बहुत जी लिया। मैं एड़ियाँ घिस-घिस कर नहीं जीना चाहती।' अम्मी जितना जोर लगा रही थीं अपने को ठीक करने के लिए, बीमारी उन्हें उतनी ही ज्यादा जकड़े जा रही थी।
उनकी हालत देखकर मेरा जी हलक को आ जाता। वह पुरानी बातें याद कर-कर रोतीं। तो मैंने सोचा क्यों ना टीवी का इंतजाम कर दिया जाए। तो मैंने बिना किसी हिचक, लाग-लपेट के सीधे-सीधे उनसे बात कर ली। कह दिया कि, 'जब मर्द देख सकते हैं, तो औरतें क्यों नहीं देख सकतीं? क्या वह इंसान नहीं हैं? आखिर हम औरतें ही सारी तरह की कैद में क्यों हैं?' अम्मी को राजी करने में बड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी, मैं तो यह सोचकर परेशान थी, लेकिन हुआ इसका उल्टा।
अम्मी तो जैसे पहले से ही तैयार बैठी थीं। बस पहल के लिए हिम्मत नहीं कर पा रही थीं। मेरे पहल करते ही वह तैयार हो गईं। मगर यह दिखावा करते हुए कि वह मेरे लिए मानीं। बहुत प्यार से बोलीं, 'तुम्हारा इतना मन है तो ठीक है लगवा देते हैं। अब है ही कौन मना करने वाला। वैसे भी तुम बच्चों के साथ बहुत ही ज्यादा ज्यादती हुई है इस घर में।
मैं रोज ही सोचती थी, मेरा यही ख्वाब था कि दुनिया के बाकी बच्चों की तरह हमारे बच्चे भी खूब पढ़ें-लिखें, खुश रहें, अच्छी तरबीयत पाएं, तरक्की करें। जिससे वह सबके सब अपने पैरों पर खड़े होने लायक बनें। मगर तुम सबकी या हम सबकी यह बदकिस्मती ही रही कि घर जाहिलियत का अड्डा बना रहा। अखाड़ा बना रहा। मेरे सारे ख्वाब जर्रे-जर्रे होकर तबाह हो गए। मुझे क्या पता था कि, अल्लाहताला मुझे, मेरे किसी गुनाह की सजा देगा। बड़ा सा ख्वाब दिखाकर उसे धूल बना देगा। ऐसे इंसान को मेरे जीवन में भेजेगा जो झूठ-फरेब, धोखे के सिवा कुछ जानता ही नहीं था। जो इंसानियत को कुचलने में ही यकीन रखता था।'
अम्मी अपनी भड़ास निकालते-निकालते रोने लगीं तो उन्हें चुप कराया।
टीवी के लिए पैसे कहाँ से आयेंगे? यह पूछा, तो जो बात निकल कर सामने आई, उससे हमारे सपने बिखरने लगे। फिर रास्ता निकला कि, टीवी को किस्तों में लिया जाए। मगर दुकानदार की शर्तों के आगे वह भी नामुमकिन लगा। हम किस्तें कहाँ से देंगे, इसका वह पुख्ता जरिया जानना चाहते थे। हमारे काम से आने वाली आमदनी को वह कच्ची आमदनी कह रहे थे। लेकिन मैं भी जिद पर अड़ी रही, हाथ-पैर मारती रही। अंततः एक सूत्र मुझे मिला।
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