उपन्यास >> बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाब बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाबप्रदीप श्रीवास्तव
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प्रदीप जी का नवीन उपन्यास
उफ़ इतनी तेज़ गर्मी कि, मुझे गुम्बदों पर पसीने की मोतियों सी चमकती अनगिनत बूंदें दिखने लगीं। जो एक-एक कर आपस में मिलकर, धागे सी पतली लकीर बन गुम्बदों के बीच से नीचे तक चली गईं। फिर देखते-देखते गोल भंवर सी गहरी झील में उतर गईं। मुझे वह ज़ाहिदा की नदी में पड़ीं भंवर सी बड़ी नाभि से भी बड़ी और खूबसूरत लगी। और नीचे गई तो वह लकीर घने अंधेरे वन से गुजरती एक खोई नदी सी दिखी। वह भी ज़ाहिदा की नदी से कहीं... ओह, जो ज़ाहिदा सी खूबसूरत जाँघों के बीच जाने कहाँ तक चली जा रही थी।
मैं खुशी से फूली जा रही थी कि ज़ाहिदा हर बात में मुझसे पीछे-पीछे और पीछे ही छूटती जा रही है। मारे खुशी के मैं इतने पर ही ठहर नहीं सकी, खुद को रोक नहीं सकी। घूम कर पीछे देखने लगी अपने नितंबों को, जो उससे भी ज़्यादा गोरेऔर सख्त नज़रआ रहे थे। बनावट ऐसी जैसे कि, तेज़ बारिश में पानी का बना कोई बड़ा सा बुलबुला। जिसे रियाज अपने कठोर हाथों से पिचकाने की कोशिश कर रहा है, उसे दबोचना चाहता है, लेकिन वह कर नहीं पा रहा है। वह फिर-फिर वैसे ही होते जा रहे हैं। वह ज़ाहिदा के बुलबुलों से कहीं बहुत ज़्यादा खूबसूरत हैं।
मैं ज़ाहिदा की हर चीज से कहीं ज़्यादा खूबसूरत, अपनी खूबसूरती से रात भर बात करती रही। अपना दुख उनसे बांटती रही। पूछती रही कि मुझे ज़ाहिदा सी खुशी क्यों नहीं मिलती। और फिर किसी समय थक कर सो गई। सवेरे-सवेरे अम्मी की चीखती आवाज ने जगाया। तड़प कर उठ बैठी और अपने कमरे का नजारा देखकर कांप उठी।
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