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बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाब

प्रदीप श्रीवास्तव

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16913
आईएसबीएन :9781613017227

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प्रदीप जी का नवीन उपन्यास

अम्मी के बहुत दबाव पर जब आगे बढ़े तो कुछ इस तरह कि, कई जगह रिश्ते बनते-बनते ऐसे टूटे कि अम्मी आपा खो बैठीं। उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि, 'तुम जानबूझकर लड़कियों का निकाह नहीं होने देना चाहते। तुम इनकी कमाई हाथ से निकलने नहीं देना चाहते।' इस बात पर अब घर में खूब हंगामा होने लगा। कई महीने बड़े हंगामाखेज बीते। फिर अचानक ही एक जगह अम्मी के प्रयासों से दो बड़ी बहनों का निकाह एक ही घर में तय हो गया। एक ही दिन निकाह होना तय हुआ।

अम्मी को परिवार बहुत भला लग रहा था। लड़के भी सीधे लग रहे थे और बड़ी बात यह थी कि दोनों अपने खानदानी धंधे टेलरिंग को जमाए हुए थे। अच्छा-खासा खाता-पीता घर था। कस्बे की बाजार में दोनों की टेलरिंग की दुकान थी। अम्मी ने सोचा इससे अच्छा कुछ नहीं हो सकता। लड़कियाँ चिकनकारी से जुड़ी हैं, यह सब मिलकर काम खूब बना ले जाएंगे। जीवन भर खुश रहेंगे। एक दिन लड़के और उनके परिवार वाले आकर सगाई कर गए। दो महीने बाद ही निकाह का दिन मुकर्रर हो गया। अम्मी का वश चलता तो निकाह तुरंत का तुरंत कर देतीं। लेकिन पैसों की कमी के चलते वह तैयारी के लिए थोड़ा समय लेने के लिए विवश थीं।

अब्बू के लिए वह साफ-साफ कहती थीं कि वह खुले मन से निकाह के लिए तैयारी नहीं कर रहे हैं। हाथ नहीं बंटा रहे हैं। इन बातों के कारण रोज दो-चार बार दोनों में तू-तू मैं-मैं होती रही। इस बीच लड़कों के अम्मी-अब्बू हर हफ्ते मिलने आने लगे। लड़कों की बहनें भी जरूर आतीं।

सभी बेहद हँसमुख स्वभाव की थीं। जब दूसरी बार वह सब आईं तो दो मोबाइल भी लेकर आईं और छुपाकर दोनों बहनों को दे गईं। यह मोबाइल लड़कों ने ही भिजवाए थे। संदेश भिजवाया था कि बात जरूर करें। जाते-जाते मोबाइल चलाना भी सिखा गईं। अब्बू को पता ना चले इसलिए दोनों ने मोबाइल को साइलेंट मोड में लगा दिया था। केवल वाइब्रेटर ऑन था। देते समय कहा, 'चलाना सीख जाना तो अपने हिसाब से कर लेना।'

हम बहनों के लिए यह मोबाइल किसी अजूबे से कम नहीं थे। उस दिन हम चारों बहनें खाने-पीने के बाद चिकनकारी के काम में लगे थे। पूरा दिन अम्मी के साथ निकाह की तैयारियों में निकल गया था। अम्मी थक कर चूर थीं, तो सो गईं। मगर चिकन का ऑर्डर था तो हम बहनें उसे ही पूरा करने में लगी रहीं। रात नौ बजे होंगे कि दोनों ही मोबाइल की लाइट ब्लिंक करने लगी। थरथराहट भी हो रही थी।

बड़ी दोनों बहनों ने मोबाइल हम छोटी बहनों के हाथ में थमा दिया। उन्हें संकोच हो रहा था। मगर हमें कॉल रिसीव करना भी नहीं आ रहा था। संकोच और नासमझी के चलते कॉल खत्म हो गई लेकिन हम रिसीव नहीं कर सके। अम्मी-अब्बू का डर अलग था। अम्मी तो खैर कुछ ना कहतीं लेकिन पता चलने पर अब्बू हमारी खाल खींच लेते। हम सब बहनें इस बात से भी डर रही थीं कि लड़के कहीं नाराज ना हो जाएं। उन्होंने इतने महंगे मोबाइल अपनी बहनों के हाथ भिजवाए हैं। हो ना हो बहनें भी इससे नाराज होंगी। कुछ ही समय बाद कॉल फिर आ गई।

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