उपन्यास >> बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाब बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाबप्रदीप श्रीवास्तव
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प्रदीप जी का नवीन उपन्यास
कॉल आते ही एक बहन पानी के बहाने आँगन में गई कि, देख आए अब्बू-अम्मी सो रहे है कि नहीं। उसने लौटकर बताया कि दोनों लोग सो रहे हैं। अब्बू के कमरे से उनके खर्राटों की आवाज आ रही है। लेकिन तबतक कॉल फिर खत्म हो गई। हम डर गए कि अब निश्चित ही नाराज हो जायेंगे। हम खुसुर-फुसुर आपस में बातें कर रहे थे।
काम भी करते जा रहे थे और तय हुआ कि इस बार कॉल रिसीव करनी है और जो हरा-लाल रिसीवर इसमें फुदकने लगता है। इसमें हरे वाले को ही पकड़ना है। हम बहनों का अंदाजा सही निकला। करीब तीन-चार मिनट के बाद फिर जैसे ही कॉल आई, दोनों मोबाइल वैसे ही बड़ी बहनों ने हम दोनों छोटी बहनों के हाथों में थमा दिया।
दोनों संकोच कर रही थीं। हम छोटी बहनें चुहुलबाजी पर उतर आई थीं। पहले तय बातों के अनुसार हमने हरे रिसीवर को छू लिया। कान में लगाया तो लड़की की आवाज आई। उसने तुरंत पहचान लिया और अपना परिचय देते हुए बताया कि वह लड़कों की बहन बोल रही है। फिर मोबाइल पर भी उसने सलाम किया और बड़े प्यार से दोनों बड़ी बहनों से बात कराने को कहा।
वह दोनों ही मोबाइल पर एक साथ थी। यानी दोनों मोबाइल उसने एक साथ कान से लगाए थे। हमने मोबाइल बड़ी बहनों को पकड़ा दिए। कुछ संकोच के साथ दोनों ने बात शुरू कर दी। पहले बहन ने कुछ देर बात की फिर लड़के लाइन पर आ गए। हम दोनों छोटी बहनें बड़ी बहनों के कान से अपने कान सटाए उनकी बातें सुन रही थीं। दोनों ही लड़के बड़ी शालीनता से बातें कर रहे थे।
पहले दिन की बातचीत करीब पन्द्रह मिनट चली। फिर यह सिलसिला चल निकला। दिन भर में चार-पांच बार से ज्यादा बातें होतीं। हम बहनें इसलिए बातें कर पा रही थीं क्योंकि अब अम्मी दिनभर कामों में व्यस्त रहतीं, बाहर रहतीं या घर के अगले हिस्से में। हमारे लिए राहत की बात थी तो सिर्फ इतनी कि हमारे तीनों भाई निकाह के बाद अलग रहने लगे थे। अब्बू से उन सबकी एक मिनट भी नहीं पटती थी। निकाह के पहले से ही। इतना ही नहीं, तीनों भाइयों ने घर भी एक ही दिन छोड़ा था। एक साथ किराए का मकान लिया था। फिर तीनों को लगा कि लखनऊ में रहकर कुछ ख़ास नहीं कर पाएंगे, तो जल्दी ही मुंबई निकल गए।
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