नई पुस्तकें >> देवव्रत देवव्रतत्रिवेणी प्रसाद त्रिपाठी
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भीष्म पितामह के जीवन पर खण्ड-काव्य
बोली, हे राजन! मुझे आप-
भा गए, हृदय से सच कहती,
इसलिए वरण कर महाराज,
पत्नी का दर्जा मुझको दें॥6॥
कामातुर हो मैं आई हूँ,
प्रिय, प्रेम-भेंट मैं लाई हूँ,
मेरा परिणय करके हे नृप!
मुझको अब तोष दान कीजै॥7॥
पर नृप थे धीर-वीर ज्ञानी,
बोले अति कोमल, मृदु वाणी,
हे भामिनि! ग्रहण न कर सकता,
पत्नी तुमको न बना सकता॥8॥
तुमने पहले ही गलती की,
दक्षिण उरु पर आकर बैठीं,
यह पत्नी का है भाग नहीं,
यह सन्तानों का है केवल॥9॥
पत्नी का तो है बाम भाग,
जिसमें तुमसे है चूक हुई,
इसलिए करूँगा ग्रहण तुम्हें,
केवल अपत्य की पत्नी सम॥10॥
तुमको मैं आश्वासन देता,
जब पुत्र जन्म लेगा मेरा,
होने पर उसके प्राप्त वयस,
तुमको आना होगा फिर से॥11॥
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