कविता संग्रह >> वाह रे पवनपूत वाह रे पवनपूतअसविन्द द्विवेदी
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पवनपुत्र हनुमान जी पर अवधी खण्ड काव्य
कवि दृष्टि
विवेच्य कृति 'वाह रे पवनपूत' हिन्दी के उदीयमान कवि श्री असविन्द द्विवेदी की प्रातिभ शक्ति सम्पन्नता का पुष्ट प्रमाण है। इसके पूर्व इनकी चार-पाँच प्रारम्भिक कृतियाँ प्रकाश में आ चकी हैं। असविन्द जी सुल्तानपुर जनपद के अन्तर्गत आने वाले अमेठी के उस जग जाहिर ऊसर भूमि के सरस कवि हैं जिसे भूतपूर्व अमेठी नरेश स्वर्गीय राजर्षि रणंजय सिंह जी ने अपनी साहित्य-साधना और लोक पारखी विलक्षण दृष्टि तथा व्यावहारिकता की स्नेह सिंचित भावना-भूमि प्रदान कर अत्यन्त उर्वरा, मधुरा और भास्वरा बना दिया है। यही वह सात्विक दिव्य भावना-भूमि है, जहाँ कभी मलिक मुहम्मद जायसी ने हिन्दी के प्रसिद्ध प्रेमाख्यानक काव्य ‘पदमावत' को जन्म देकर गोस्वामी तुलसीदास के 'रामचरित मानस' का पथ प्रशस्त किया था। श्री असविन्द द्विवेदी उसी भावना-भूमि में न केवल जन्मे हैं अपितु उसी में पले और उसी के अनुरूप ढले भी हैं। स्वर्गीय महाराज श्री रणंजय सिंह जी भारतीय संस्कृति के समर्थक, आर्य-संस्कृति के उपासक तथा काव्य-कला के प्रकाशक, कर्णधार कवि थे, जिन्होंने अपनी उदारता, साधुता, सदाशयता तथा साहित्यिकता की महान अमराइयों के सन्निकट मतृण-मुलायम माटी में अनेक महिमा-मण्डित साहित्यांकुर उगाए हैं। श्री असविन्द द्विवेदी उनमें से एक हैं जिन्हें महाराज श्री का स्नेह सान्निध्य और आशीर्वाद दोनों भरपूर मिला है। इसलिए इनकी प्रथम कृति ‘रणंजय यश बीसिका' जन्म लेती है। इनकी दूसरी संरचना उस क्षेत्र के आध्यात्मिक गौरव परमहंस जी महाराज विषयक ‘परमहंस चालीसा' है। 'बूंदा-बाँदी' इनकी अवधी कविताओं का एक महत्वपूर्ण संग्रह है जिसकी उस क्षेत्र में व्यापक चर्चा और प्रशंसा हुई। इस रचना-रसज्ञता ने असविन्द को एक प्रखर प्रतिभा के धनी कवि के रूप में हिन्दी मंचों पर प्रतिस्थापित किया। इनकी चतुर्थ कृति 'तपःपूत राजर्षि रणंजय' के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर पूर्ण प्रकाश डालती है। असविन्द की पंचम प्रकाशित रचना, इनकी अवधी कविताओं का संग्रह 'आँधी' है जो 'यथानामो तथा गुणो' की संवाहिका है तथा असविन्द द्विवेदी की गहरी तथा पैनी काव्य-दृष्टि का अन्तरंग परिचय प्रदान करती है। इस रचना के उपरांत पर्याप्त समय तक सात्विक मौन का अवलम्बन लेते हुए असविन्द अब साहित्य-संसार के समक्ष 'वाह रे पवनपूत' जैसी आचार्यों की परम्परा वाली छान्दिक संरचना के साथ समुपस्थित हो रहे हैं। जिससे इनकी आध्यात्मिक भावना, कवि-कल्पना और प्रखर प्रतिभा का पता एक साथ तो चलता ही है, साथ ही इनके काव्य-कौशल के प्रच्छन्न प्रजा पटुता स्वरूप का भी स्पष्ट संकेत मिलता है, यह अत्यंत प्रसन्नता का विषय है।
'वाह रे पवनपूत' केशरी कुमार, रामभक्त, महाबली आंजनेय-हनुमान के अकूत बल विक्रम, पराक्रम-प्रभूत जगद्विख्यात चरित्र का अवधी के छन्दोबद्ध काव्य के अन्तर्गत आने वाला मुक्त-काव्य है जिसमें लंका के महासमर में रामानुज, शेषावतार लक्ष्मण का मेघनाद द्वारा प्रयुक्त 'शक्तिबाण' से घायल होकर मूर्छित होने से लेकर पवनपूत द्वारा द्रोणपर्वत से रातों-रात मूल-संजीवनी लाने, लक्ष्मण के प्राण बचाने के अद्भुत, अलौकिक तथा प्रशंसनीय पराक्रमेय कार्य का प्रभावोत्पादक भाषा-शैली में चित्रांकन किया गया है। किन्त. प्रस्तुत रचना का विवेचन करने के पूर्व कुछ बातें काव्य-शास्त्रीय आधार पर काव्य के विषय में कर लेना अनुचित न होगा।
काव्य-शास्त्र के मर्मज्ञ आचार्यों ने काव्य के दृश्य और श्रव्य दो भेद किए हैं। अभिनय संयुक्त दृश्य-काव्य अपनी कलात्मकता द्वारा दर्शकों को अतिशय आनन्द प्रदान करता है, इसलिए इसे दृश्य-काव्य का अभिधान प्रदान किया जाता है। श्रव्य-काव्य वह पद्यबद्ध रचना है जिसे पढ़कर अथवा अनुश्रवण कर अलौकिक आनन्द की प्राप्ति होती है। श्रव्य काव्य को पद्य, गद्य और चम्पू, तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है। आचार्यों ने पद्य को पुनः प्रबन्धकाव्य और मुक्तक-काव्य जैसी दो कोटियों में बाँटा है। प्रबन्ध काव्य के भी तीन रूप स्वीकार किए गए हैं- महाकाव्य, एकार्थकाव्य और खण्डकाव्य।
महाकाव्य ‘महत' तथा 'काव्य' दो शब्दों से विनिर्मित है। इसका अर्थ होता है, कविकृत महान कार्य। लम्बे कथानकों से भरपूर महान पुरूषों के जीवन-चरित्र पर आधारित, नाटकीय सन्धियों से युक्त, उत्कृष्ट एवं समलंकृत शैली में लिखित तथा जीवन के विविध कार्य-स्वरूपों को सर्गबद्ध वर्णन करने वाला सुखान्त काव्य ही महाकाव्य की संज्ञा प्राप्त करता है।
खण्डकाव्य के अन्तर्गत जीवन के किसी एक अंश या खण्ड को चित्रित किया जाता है। एकार्थकाव्य जीवन के किसी एक महत्वपूर्ण अर्थ का प्रतिपादन करता है।
मुक्तक शब्द 'मुक्त' शब्द में 'कत्' प्रत्यय लगाकर बनाया गया है, जिसका अर्थ होता है स्वतंत्र। मुक्तक वह स्वतंत्र रचना है जिसमें पूर्वापर सम्बन्ध नहीं पाया जाता। प्रबन्धन विहीन स्फुट पद्य-बद्ध रचना मुक्तक कहलाती है जिसके मुक्तकों, छन्दों अथवा पद्यों में परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं होता किन्तु सहृदय पाठकों में चमत्कारिक प्रभाव उत्पन्न करने में यह पूर्णतया सक्षम होती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार- “यदि प्रबन्धकाव्य एक विस्तृत वनस्थली है तो मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता है, इसी से वह सभा-समाजों के लिए अधिक उपयुक्त होता है।"
श्री असविन्द द्विवेदी की प्रस्तुत रचना को हम मुक्तक काव्य की कोटि में रख सकते हैं। इसमें वन्दना के बारह तथा मूल कृति के 108 छन्द अर्थात कुल 120 छन्द हैं। जिसमें कथानक को आगे बढ़ाने की प्रवृत्ति तो झलकती है किन्तु छन्दों में पूर्वापर सम्बन्ध नहीं पाया जाता। सभी छन्द वर्णिक हैं जिनमें मुक्तक वर्णिक छन्द कवित्त अथवा मनहर और मन्तगयन्द सवैया का कवि ने सुन्दर प्रयोग किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि कवि को ये छन्द अतिशय प्रिय हैं।
काव्य प्रणयन के पूर्व कवि ने द्वादश छन्दों में प्रारम्भ के छः छन्दों में सतगुरू, शारदा, गणेश, अंजनी माता, भगवान राम, माता जानकी की, तथा अन्त के छ: छन्दों में भगवान शंकर की दो छन्दों में, तथा हनुमान जी की चार छन्दों में, अपने ग्रन्थ के सकुशल सम्पन्न होने की मांगलिक कामना या याचना की है। बड़ा साभिप्राय प्रयोग हुआ है यहाँ। शिव के बारहवें अवतार हनुमान रूद्रावतार हैं और उनसे सम्बन्धित काव्य में केवल बारह बन्दनाएं, - दो शंकर की और उनसे भी चार हाथ आगे हनुमान की चार तथा छः बन्दनाएं अन्यों की। कवि के तराजू ने वन्दना प्रकरण को बराबर तो अवश्य कर दिया है मगर पलड़ा भारी रूद्रावतार का ही है।
राम-भक्त हनुमान जैसे तेजस्विता के समुज्जवल नक्षत्र, अतुलित बलधाम, धीरोदात्त नायक पर साहित्य-संसार में अनेक काव्य-कृतियाँ अस्तित्व पा सकी हैं जिनमें महाकवि पण्डित श्यामनारायण पाण्डेय कृत 'जय हनुमान' डॉ. जयशंकर त्रिपाठी द्वारा विरचित 'आंजनेय' डॉ. कुँवर प्रकाश सिंह द्वारा रचित 'रामदूत' प्रमुख रूप से गण्यमान हैं। इस परम्परा में श्री असविन्द द्विवेदी ने 'वाह रे पवनपूत' का सृजन करके एक प्रशंसनीय कार्य किया है। इनका यह कार्य अत्यंत लघुकाय होता हुआ भी अत्यंत आह्लादक एवं प्रभावोत्मादक है। वस्तुतः पवनदूत के शक्तिमान-तेजस्वी व्यक्तित्व का प्रस्फुरण जिस प्रकार प्रस्तुत रचना में हुआ है वैसा अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिलता। असविन्द के काव्य का तेवर और उसके नायक का त्वरा-तेजस्वित-युक्त नायकत्व नितान्त ही प्राणवान बन सका है। इसका प्रमुख कारण मर्मस्पर्शी प्रसंग का चयन है।
- आचार्यों में काव्य को तुलनात्मक दृष्टियों से मापने के लिए 'अंतरंग' और 'बहिरंग' जैसे तुला के दो पलड़ों की परिकल्पना की है। अंतरंग काव्य का भावपक्ष और बहिरंग काव्य का कलापक्ष होता है। प्रस्तुत रचना का समालोचन इन दोनों दृष्टि से कर लेना उचित प्रतीत होता है।
श्री असविन्द द्विवेदी की विवेच्य कृति का कथानक अत्यंत मर्मस्पर्शी एवं प्रभावोत्पादक है। रामकथा के हृदयस्पर्शी प्रसंगों में लक्ष्मण को शक्तिबाण लगना और उनका संर हा जाना एवं अत्यंत संवेदनशील तथा कारूणिक प्रसग है। इस प्रसंग पर महासमर का सम्पूर्ण भविष्य अवलम्बित लगता है। पाठक जाने क्या-क्या पोल स्वयं राम को यह असंभावित हृदय विदाकरक घटना विचालत कर देती है-
दुःख देखि परजा के एतना दुखी न भए
बनवास से न कष्ट भवा एक पाई कै।
पिता के मरन सुनि अस न अधीर भए
बिनती न माने प्रभु भरत से भाई कै।
प्रान प्यारी सुकुमारी सीता के हरन भवा
साहस घटा न रंच भर रघुराई कै।
मुला आजु आँसुन की धार से दरार फाटि
बहि गवा बाँध राम जी की धीरताई कै।।
काव्य के भावपक्ष की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता है मार्मिक प्रसंगों की पहचान और उनकी समयानुकूल उद्भावना। जिस कवि में यह शक्ति जिस मात्रा में पाई जाएगी, वह इसी मात्रा में हृदयस्पर्शी प्रकरणों की मार्मिक उद्भावना के साथ पाठकों की सद्भावना, उनकी संवेदनशील सहानुभूति प्राप्त कर सकता है। श्री असविन्द में भावुकता, भावनात्मकता और प्रभावोत्पादक प्रसंगों की सम्यक् जानकारी, पहचानन तथा उनके अवसरानुकूल प्रस्तुति की शक्ति और सामर्थ्य सहज रूप में दृष्टिगोचर होती है। विपत्ति के समय में बड़े-बड़े ज्ञानवानों को अल्प बुद्धिवाले भी अत्यंत सहजता और गंभीरता से समझाते हैं। ऐसे मौके पर देखना पड़ता है कि कहीं मुँह से ऐसी बात न निकल जाए, जो विपत्ति में पड़े व्यक्ति को हताश और निराश कर दे। स्नेह-सहानुभूति के साथ उसे प्रोत्साहन और प्रेरणा प्रदान करना भी समझाने वाले का लक्ष्य होना चाहिए। दुखी राम को धीरज, सांत्वना तथा सहानुभूति प्रदान करते हुए जामवन्त कहते हैं -
कौनो बात नाइँ घबराइँ न कृपानिधान
दुख दूरि होये जुद्ध होये ललकारि के।
नाम आ सुखेन बैद लंकपुरी कै प्रसिद्ध
कहइँ हनुमान ही की ओर सनकारि के।
'असविन्द' बुद्धिमान बीर बलवान अहा
देखा-सुना बा तोहार जाया पै सम्हारि के।
जाइके सुखेन कअ तुरंत लैके आवा ज्वान
कहे-सुने आवै चाहे डाँटि-फटकारि के।।
अतुलित बलधाम हनुमान में शारीरिक शक्ति के साथ बौद्धिक शक्ति-सामर्थ्य भी पर्याप्त है। तभी तो वे ज्ञानियों में अग्रगण्य हैं। कवि ने उनकी तत्परता, बौद्धिकता, तर्कशीलता, प्रत्युत्पन्न मति और अकूत बलवंतता का परिचय बड़े कलात्मक ढंग से दिया है -
सोचै लगे बजरंगबली मन, सोवत बैद कअ खोदि जगाई।
चाचर देखि करै कतहूँ तब होय बखेड़ा के लागे सहाई।
सोवत खाट उठाये चली कहुँ भाखै कि छूटि घरे मअँ दवाई।
मारि सकै न बहाना, न बेरि हो, ल्याये मकान समेत उठाई।।
सुखेन लक्ष्मण का परीक्षण करने के उपरान्त अनेक सम्भावनाएँ व्यक्त करता है जिसे सुनकर सभी अवाक् और स्तब्ध रह जाते हैं। फिर वह अनुभवी वैद्य ललकारते हुए हनुमान को सम्बोधित करता है और कहता है -
बोला सुखेन हे मारूत नन्दन, अउर के बीर जे बाँधे लँगोटी।
के कै अहै दम जाइके आवै ई काम करेर और राति बा छोटी।
है कैलास तौ चन्द्र उदै गिरि तो गन्धर्व बली त्रै कोटी।
जंगल बा फिर सिंह बाघ है औषधि वाली आ आखिरी चोटी।।
वैद्य के कथनों में अनेक दुरूहताओं, दुर्गमताओं और समय की सीमित, सीमाओं आदि का अनुमान लगाकर भाव-विह्वल राम अनुभव करते हैं कि यह सब व्यर्थ का दौड़ना-धूपना है। भला बारह वर्ष के लम्बे रास्ते को कोई रातभर में कैसे तय कर सकता है? आप लोग मुझे व्यर्थ का ढाढ़स बंधा रहे हैं। मुझे तो कोई आशा नजर नहीं आती। होनी को कोई टाल नहीं सकता। विधाता मेरे विपरीत हैं। लक्ष्मण के न बच पाने की स्थिति में पराजय के साथ-साथ मेरी मृत्यु भी सुनिश्चित है। राम का यह हताश-निराश दुःख-द्रवित स्वरूप देखकर सारा वातावरण शोक निमग्न हो जाता है। फिर अवसर के अनुकूल पवनपूत का अदम्य साहस शक्ति से भरपूर रौद्र रूप ऊर्जस्वित और जागृति होता है। पौरूष पराक्रम के पुंजीभूत रूप प्रभु पवनपूत कहते हैं -
कहैं हनुमान प्रभु एतना हिरासा जिनि
लखन कै प्रान हम जीतै निकरै न देब।
सिउ लोक जाइ भगवान सिउ कअँ लेआइ
अमर कराये विनु ओनका टरै न देब।
'असविन्द' अस्विनी कुमारन कअँ लाइ नाथ
दुनियाँ मअँ और कहूँ बैद विचरै न देब।
अभिमान नाइँ ई जथारथ दयावतार,
हम मरि जाब मुल एनका मरै न देब।।
और हनमान के अपराजेय, अपौरुषेय अलौकिक आंजनेय स्वरूप का दिव्य दर्शन तो तब होता है जब वे इसी तारतम्य में कहते हैं -
नोचि-नाचि, मीजि-माँजि, गारि के चनरमाँ कअ
अमृत निकारि के लखन कअँ पियाइ देब।
अथवा पताल फोरि ल्याय के पीयूष घट
लखन के मुँह डारि छिन म जियाइ देब।
'असविन्द' सुरुज कअ राहु मुख मअँ घुसेरि
निसरि न पावै अस जतन से ताइ देब।
नहीं तो कृपानिधान मौत कअ पटकि मारि
दुनियाँ के मरै वाला झंझटै मिटाइ देब।।
मार्मिक प्रसंगों की उद्भावना के साथ-साथ असविन्द ने कई नूतन कथानक भी इसी संजीवनी प्रकरण में बड़ी कुशलता के साथ जोड़ा है। आकाश मार्ग से जाते समय हनमान अपने गुरू भगवान सूर्य के दर्शनार्थ और आशीर्वाद प्राप्त करने के उद्देश्य से उनके पास जाते हैं और अर्द्धरात्रि में उन्हें कहीं के लिए प्रस्थान करते देख आश्चर्यचकित हो जाते हैं। पूछने पर दिनकर मणि बतलाते हैं कि आज निशाचर नरेश रावण का आदेश है कि मैं समय से पूर्व ही उदित हो जाऊँ। और फिर हनुमान उन्हें अपने ढंग से समझाते हैं सीधे-सीधे और टेढ़े-टेढ़े। इस नूतन प्रसंग से कथा को विस्तार तो मिलता ही है, काव्य में रोचकता भी आ गई है। फिर हनुमान का अपने अनुमान सहित सूर्य के पास जाना एक सुन्दर नवीन साभिप्राय प्रयोग है, जिसमें कवि सर्वथा सफल हुआ। कालनेमि प्रकरण यद्यपि पुराना है फिर भी कवि ने अपनी आन्तरिक भावुकता, कमनीय कल्पना और उदात्तकाव्य कौशल के बल पर समलंकृति ढंग से समेटने का सफल प्रयास किया है। गन्धर्व लोक के गन्धर्वो के नाच गान का आमोद-प्रमोद का परिवेश कवि की मौलिक कल्पना है, जो अत्यंत सटीक एवं सुन्दर है। पर्वत उखाड़कर लेकर चलना, मार्ग में भरत का ख्याल आना, भरत की परीक्षा लेने की दृष्टि से अयोध्यापुरी के पास से होकर जाना, इत्यादि प्रसंग को भी कवि ने अत्यंत सुन्दरता के साथ प्रस्तुत किया है। भरत के बाण-प्रहार से गिरे हनुमान को रामभक्त जान भरत इन्हें अपनी गोद में लेकर ठीक वैसे ही चिंतित हैं जैसे राम अचेत लक्ष्मण को अपनी गोद में लेकर शोकाकुल हैं। यह प्रसंग नितान्त नया और हृदयस्पर्शी है। कवि लिखता है -
विधि के विडम्बना, ई कैसेन बनाव बना
दुःखी आजु राम जी औ भरत समान हैं।
इहां धर्म संकट मा परा कैकेई किशोर
उहां धर्म संकट मा करुना निधान हैं।
'असविन्द' दुनउ जने, दुःखी, दुःख एक सम
करुना में डूबे दोउ भक्त भगवान हैं।
राम जी के कोरा मा अचेत हैं लखन लाल
भरत के कोरा मा अचेत हनुमान हैं।
इस नूतन और मौलिक उद्भावना हेतु असविन्द जी की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। ऐसे मार्मिक प्रसंग की उद्भावना तो स्वयं महाकवि गोस्वामी तुलसीदास से भी न बन पड़ी थी। परन्तु अवधी का यह होनहार किशोर कवि इसे जीवन्तता प्रदान कर सुधी जनों के सुभाशीष का अधिकारी बन गया है। हनुमान के चैतन्य होने की स्थिति में कवि ने पुनः एक नूतन प्रसंग प्रस्तुत किया है। हनुमान राम जैसे स्वरूप वाले भरत को देखकर आश्चर्यचकित हो जाते हैं कि यहां तो केवल राम जी हैं, न लक्ष्मण, न कपि कुल, न बैद्य और न लंका का वह विशाल समरांगण, फिर भरत के परिचय देने पर वे आश्वस्त होते हैं। कवि ने अपने काव्यकौशल से हनुमान जैसे चतुर और ज्ञानी को असमंजस और आश्चर्य में डाल दिया है, इसे वे रावण की माया मानते हैं। भरत और हनुमान का वार्तालाप भी सुन्दर बन पड़ा है। इस अवसर पर माता कौशिल्या, कैकेई और सुमित्रा का राम को हनुमान के द्वारा संदेश प्रेसित करना भी असविन्द की अपनी नूतन और सटीक परिकल्पना है। कैकेई नन्दन का गुणानुवाद करते-करते हनुमान द्रोणगिर धारे आकाश मार्ग से चले जा रहे हैं। और उदार राम वैकल्य की चरम सीमा में प्रविष्ट कर लक्ष्मण की यह दशा देखकर दुखार्त हो जाते हैं तो सारा वातावरण शोकमग्न हो जाता है -
माथ पै हाथ रघुनाथ जी भाई के पेट कअ टोअन लागे
आये नहीं बजरंगवली प्रभु सोचि के धीरज खोअन लागे
आंखि मा आँसू अमात न बा प्रभु आँसू से गाल भिगोवन लागे
रोवत राम निहारे जबै सब बानर भालुओ रोअन लागे
इस दुःखमय परिवेश को, राम के चिन्तन और सोच, उनकी आंतरिक अभिव्यक्ति और अंतर्वेदनादि को असविन्द ने अत्यंत संवेदनशीलता के साथ संजोया है। इसी बीच हनुमान का एकाएक प्रवेश 'जैसे केउ पियासा बरै पानी लैइ के आइगा' ऐसा प्रतीत होता है। सुखेन तत्काल लक्ष्मण का उपचार करते हैं। लक्ष्मण उठकर बैठ जाते हैं। चारो ओर राम राम का जयघोष होने लगता है। राम हनुमान को अपने हृदय से लगाकर उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं कि -
जहाँ जहाँ दुनिया मा चरचा चले हमारि
प्यारे हनुमान हुआं-हुआं तू विचरिब्या।
हमरे सहारे में अहै जेतने हमार दास
उनके समस्त सोक तूंही वीर हरिब्या।
'असविन्द' तुहसें उरिन जिनगी मा नाहीं
और उपकार अबै केतना तू करिब्या।
भैया हनुमान बिना माँगे वरदान तुहै
जिया तू सदेह सदा कबौ तू न मरब्या।।
सम्पूर्ण काव्य में कवि ने जिन सम्वादों की सृष्टि की है, उनमें हनुमान और भगवान सम्वाद, फिर रावण-कालनेमि सम्वाद, पुनः भरत और हनुमान सम्वाद प्रमख हैं। सम्वाद सुन्दर प्रभावोत्पादक तथा कथानक को विस्तार प्रदान करने में सक्षम हैं। दही अभिव्यक्ति में कवि की मौलिक उद्भावना का दर्शन होता है। काव्य के बहिरंग पक्ष अथवा कलापक्ष की दृष्टि से भी विचार करने पर हम असविन्द जी को सर्वथा सफल पाते हैं।
'वाह रे पवनपूत' की भाषा अवधी है। मगर छन्दों में कवि ने यदाकदा शुद्ध खडी बोली के शब्दों का प्रयोग भावावेश की स्थितियों में कर लिया है। मगर इससे भावों की सम्प्रेषणियता उत्कर्षित ही हुई है, बाधित नहीं। अवधी भाषा के मध्य कवि ने लोकोक्तियों तथा मुहावरों का भी सुन्दर प्रयोग किया है। 'माटी के मोल विकाव न भइया, अमृत रस घोर दया, करेज धक धक करै, छक्का छूट गया, शोक के सागर मा सब बूड़ि गय, आसुनि की धार से दरार फांट, नोच नाच मीज मांजि, राम जी की राह मा अंधेर होय पावै न', इत्यादि कुछ ऐसे शुष्ठ प्रयोग हैं।
काव्य की शैली छन्दात्मक है। इसमें कुल 120 छन्द हैं। कवि ने प्रभावोत्पादकता तथा गतिमयता को दृष्टि में रखकर कहीं सवैया और कहीं कवित्त का प्रयोग किया है। सवैया अधिकांशतः मतगयन्द और कवित्त मन हरण है। इस दुधात्मक शैली के प्रयोग से प्रसंग कथात्मकता को उत्कर्ष प्रभावोत्पादकता ही मिली है, किसी प्रकार की बाधा नहीं। छन्दों की रचना अत्यंत सहज नहीं है। यह एक दुरूह कार्य है। जिस कवि में कल्पनाशक्ति जितनी प्रबल होगी, वह मुक्तक छन्दों का उतना सफल प्रयोग कर सकता है। असविन्द द्विवेदी में यह शक्ति खूब है।
छन्दबद्ध रचना होने के नाते 'वाह रे पवनपूत' शतक भी कहा जा सकता है। मगर इसमें पुरानेपन की गंध आती है। अतः कवि ने इसे एक नया शीर्षक प्रशंसात्मकता और ओजस्विता से भरपूर बनाकर प्रदान किया है।
कवि अलंकारों को काव्य कामिनी पर जबरदस्ती लादने का पक्षधर नहीं है। फिर भी अनुप्रास, यमक, श्लेष, गर्वोक्ति, विरोधाभाष आदि अलंकारों का सहज प्रयोग हुआ है। जहाँ तक 'वाह रे पवनपूत' में प्रयुक्त रस का सम्बन्ध है, वहाँ शीर्षक में वीर रस कथानक में करूण रस और अंत में आशीर्वादात्मक छन्द में शांत रस का मनमोहक प्रयोग हुआ है। संक्षिप्ततः कुल मिलाकर भाव, भाषाशैली, अभिव्यक्ति, संवाद और भाव संप्रेषणीयता की दृष्टि से असविन्द द्विवेदी का यह प्रयास सफल और प्रशंसनीय कहा जा सकता है।
शारदीय नवरात्रि
शुक्लपक्ष पंचमी सम्वत् 2055
सुमन निकेतन
दुर्गापुरी स्टेट बैंक कॉलोनी
बछड़ा मार्ग, फैजाबाद-224001
- प्रो० राम अकबाल त्रिपाठी 'अनजान'
पूर्व प्राध्यापक हिन्दी विभाग
का0 सू० साकेत स्नातकोत्तर महाविद्यालय
अयोध्या, फैजाबाद (उ.प्र.)
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